जनवरी से गांधी का जुड़ाव और भी कई स्तरों पर है। जनवरी में ही गांधी ने अपने जीवन का आख़िरी उपवास किया। जनवरी ख़त्म होने को ही थी कि गाँधी की ज़िंदगी ख़त्म कर दी गई। इसलिए गांधी और भारत के बीच के रिश्ते को समझने के लिहाज़ से जनवरी एक महत्वपूर्ण महीना है।
इसकी शुरुआत भारत और गांधी के प्रेम प्रसंग से हुई जो बत्तीस साल तक चला। उसके बाद शुरू हुआ गांधी के साथ भारत का संघर्ष। वे अपने ही मुल्क से लड़ रहे थे और हारा हुआ महसूस कर रहे थे।
इसका अंत हुआ गाँधी की भारत से निराशा के साथ। कम से कम भारत के बड़े हिस्से के हिंदू उनसे अधिक निराश हो चुके थे। उनके मुताबिक़ गांधी उनके लिए न सिर्फ़ ग़ैरज़रूरी हो गए थे, बल्कि उनको लगने लगा था कि गांधी का जीवित रहना भारत के लिए ख़तरनाक हो सकता था।
चूल्हा नहीं जला
इसलिए जब नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मारकर उनकी इहलीला समाप्त कर दी तो एक तरफ़ कई घरों में चूल्हा नहीं जला, लेकिन दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों और समर्थकों ने मिठाइयाँ बांटी और दीवाली मनाई। आज जब वह संघ भारत की सत्ता पर क़ाबिज़ है। तो यह एक मौक़ा हो सकता है यह विचार करने का कि क्या अंतिम रूप से गाँधी के विचारों को विदाई दे दी गई है।
12 जनवरी,1948 को गांधी ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में अगले दिन से बेमियादी उपवास का ऐलान किया। गाँधी 78 साल के हो चुके थे। वे उपवास करने में माहिर थे, लेकिन इस थकी देह और उम्र में इस फ़ैसले ने पूरे देश को चिंता और हैरानी में डाल दिया।
गांधी की मांग इस बार अपने ही लोगों से थी और वे भी ख़ासकर हिंदुओं से। वे हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों के दिलों के मिलने की मांग कर रहे थे।
दो मुल्क
1946-47 गाँधी ही नहीं देश के सभी नेताओं के लिए बेहद थकान भरे साल थे। आज़ादी क़रीब आ रही थी, लेकिन यह दो मुल्कों के बनने का वक़्त भी था। पूरे देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अकल्पनीय हिंसा भड़क उठी थी।
दोनों ही अमानवीयता की चरम को छूने को बेताब थे। जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन (सीधी कार्रवाई) के ऐलान ने कलकत्ते में क़त्लोग़ारत की शुरुआत कर दी थी।
गांधी वहां गए और उपवास पर बैठ गए। तभी हिंसा के दोषी माने जाने वाले सुहरावर्दी वहां आए और उन्होंने माफ़ी माँगी। इस प्रकार कलकत्ते में अमन क़ायम हुआ।
12 जनवरी को गांधी ने कहा, “जब मैं नौ सितंबर को कलकत्ते से दिल्ली लौटा तो इरादा पश्चिम पंजाब जाने का था, लेकिन ऐसा न हो सका। उस समय ख़ुशदिल दिल्ली मुर्दों का शहर लग रही थी। मैं जब ट्रेन से उतरा तो हर चेहरे पर उदासी पुती थी। सरदार प्लेटफ़ॉर्म पर मौजूद थे। उन्होने बिना वक़्त गँवाए मुझे इस महानगर की गड़बड़ियों के बारे में बताया।
मैंने फ़ौरन समझ लिया कि मुझे दिल्ली में ही रहना है और ‘करना है या मरना है'। उन्होंने आगे कहा, "हालांकि फ़ौज और पुलिस की वजह से ऊपरी अमन था, लेकिन दिलों में तूफ़ान था। वह कभी भी फूट सकता था।
"इससे मेरा ‘करने’ का संकल्प पूरा नहीं होता था और वही मुझे मौत से अलग रख सकता था, मौत जो अतुलनीय मित्र है। जिस दिल्ली में ज़ाकिर हुसैन इत्मीनान से न चल-फिर सकें, वह उनकी नहीं हो सकती थी।
मौत की ओर क़दम
गांधी ने अपने प्रयासों को नाकाफ़ी मानकर मौत की तरफ़ क़दम बढ़ाने का फ़ैसला किया। गांधी ने कहा, "जब तक आज तक मिलकर रहने वाले हिंदू और मुसलमान उन्हें यक़ीन न दिला दें कि उन्होंने आपसी रंजिश मिटा दी है और साथ-साथ रहने को तैयार हैं, तब तक वे उपवास नहीं तोड़ेंगे।"
दिल्ली पाकिस्तान से आए शरणार्थियों से भरी हुई थी। उनके साथ पाकिस्तान में हिंदुओं पर हुए ज़ुल्म की भयानक कहानियां भी आ रहीं थीं। यहाँ मुसलमानों पर हमले हो रहे थे, वे अपने इलाक़ों को छोड़ने पर मजबूर थे। मस्जिदों को तोड़ा और मंदिरों में बदला जा रहा था। महरौली के ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के मज़ार पर हिन्दुओं का क़ब्ज़ा हो गया था।
गांधी की मांग थी कि शरणार्थी हिंदू और सिख, मुस्लिम घरों और पूजा स्थलों से निकलें। ये पाकिस्तान से अपना सब कुछ खो कर आए थे और यहाँ उनसे जनवरी की कड़ाके की ठंड को झेलने को कहा जा रहा था। वे गाँधी के उपवास से बेहद नाराज़ थे। दिल्ली में ‘मरता है तो मरने दो’ के नारे लग रहे थे। गाँधी अविचलित थे।
वे पाकिस्तान जाना चाहते थे और वहां मुसलमानों को वही कहना चाहते थे जो यहाँ हिन्दुओं को कह रहे थे। आख़िर नोआखाली के हमलावर मुसलमानों की नफ़रत झेलकर भी उन्होंने उन्हें हिंसा के रास्ते से अलग कर लिया था, लेकिन अगर यहाँ मुसलमानों पर हमले होते रहे तो वे किस मुंह से पाकिस्तान जाएंगे।
दिल्ली पाकिस्तान से आए शरणार्थियों से भरी हुई थी। उनके साथ पाकिस्तान में हिंदुओं पर हुए ज़ुल्म की भयानक कहानियां भी आ रहीं थीं। यहाँ मुसलमानों पर हमले हो रहे थे, वे अपने इलाक़ों को छोड़ने पर मजबूर थे। मस्जिदों को तोड़ा और मंदिरों में बदला जा रहा था। महरौली के ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के मज़ार पर हिन्दुओं का क़ब्ज़ा हो गया था।
गांधी की मांग थी कि शरणार्थी हिंदू और सिख, मुस्लिम घरों और पूजा स्थलों से निकलें। ये पाकिस्तान से अपना सब कुछ खो कर आए थे और यहाँ उनसे जनवरी की कड़ाके की ठंड को झेलने को कहा जा रहा था। वे गाँधी के उपवास से बेहद नाराज़ थे। दिल्ली में ‘मरता है तो मरने दो’ के नारे लग रहे थे। गाँधी अविचलित थे।
वे पाकिस्तान जाना चाहते थे और वहां मुसलमानों को वही कहना चाहते थे जो यहाँ हिन्दुओं को कह रहे थे। आख़िर नोआखाली के हमलावर मुसलमानों की नफ़रत झेलकर भी उन्होंने उन्हें हिंसा के रास्ते से अलग कर लिया था, लेकिन अगर यहाँ मुसलमानों पर हमले होते रहे तो वे किस मुंह से पाकिस्तान जाएंगे।
इंसाफ़ और उदारता की माँग
उन्होंने बँटवारे की वजह से संसाधनों के बँटवारे में भी भारत से इंसाफ़ और उदारता की माँग की और पाकिस्तान को उसका हिस्सा देने को कहा। गाँधी के बेटे ने कहा कि वे उपवास करके ग़लत कर रहे थे। उनके जीवित रहने पर लाखों जानें बच सकती थीं। गाँधी ने बेटे की अपील भी ठुकरा दी।
गाँधी का यह उपवास सत्रह तारीख़ तक चला। दिल्ली और भारत ही नहीं पूरी दुनिया की निगाहें इस विचित्र उपवास पर लगी थीं। एक सनातनी हिंदू अपने ही धर्मवालों से इस उपवास के ज़रिए बहस कर रहा था। वह उन्हें अपने ह्रदय को जागृत करने को कह रहा था। यह तक़रीबन नामुमकिन माँग थी।
गाँधी मुसलमानों से किसी भी वफ़ादारी के ऐलान की मांग के ख़िलाफ़ थे। जिन मुसलमानों ने यहाँ रहने का फ़ैसला किया था, उनपर शक करना गुनाह था। भारत को धर्म-निरपेक्ष होना था। क्या यह प्रयोग नाकामयाब हो जाएगा? फिर गाँधी के बचे रहने का भी कोई मतलब न था।
17 जनवरी को राजेन्द्र प्रसाद के घर पर करोल बाग़, पहाडगंज, सब्ज़ी मंडी और दूसरे इलाक़ों के अगुओं की बैठक हुई। शरणार्थी शिविरों के हिन्दुओं और सिखों ने इस वादे पर दस्तख़त किए कि वे मुस्लिम मिल्कियत वाली जगहों को और मस्जिदों को ख़ाली कर देंगे।
गाँधी का यह उपवास सत्रह तारीख़ तक चला। दिल्ली और भारत ही नहीं पूरी दुनिया की निगाहें इस विचित्र उपवास पर लगी थीं। एक सनातनी हिंदू अपने ही धर्मवालों से इस उपवास के ज़रिए बहस कर रहा था। वह उन्हें अपने ह्रदय को जागृत करने को कह रहा था। यह तक़रीबन नामुमकिन माँग थी।
गाँधी मुसलमानों से किसी भी वफ़ादारी के ऐलान की मांग के ख़िलाफ़ थे। जिन मुसलमानों ने यहाँ रहने का फ़ैसला किया था, उनपर शक करना गुनाह था। भारत को धर्म-निरपेक्ष होना था। क्या यह प्रयोग नाकामयाब हो जाएगा? फिर गाँधी के बचे रहने का भी कोई मतलब न था।
17 जनवरी को राजेन्द्र प्रसाद के घर पर करोल बाग़, पहाडगंज, सब्ज़ी मंडी और दूसरे इलाक़ों के अगुओं की बैठक हुई। शरणार्थी शिविरों के हिन्दुओं और सिखों ने इस वादे पर दस्तख़त किए कि वे मुस्लिम मिल्कियत वाली जगहों को और मस्जिदों को ख़ाली कर देंगे।
शुक्रवार 30 जनवरी 1948 की शुरुआत एक आम दिन की तरह
हुई. हमेशा की तरह महात्मा गांधी तड़के साढ़े तीन बजे उठे.
प्रार्थना की, दो घंटे अपनी डेस्क पर कांग्रेस की नई
ज़िम्मेदारियों के मसौदे पर काम किया और इससे पहले कि दूसरे लोग उठ पाते, छह बजे फिर सोने चले गए.
काम करने के दौरान वह अपनी सहयोगियों आभा और मनु का बनाया नींबू और शहद का गरम पेय और मीठा नींबू पानी पीते रहे.
दोबारा सोकर आठ बजे उठे. दिन के अख़बारों पर नज़र दौड़ाई और फिर ब्रजकृष्ण ने तेल से उनकी
मालिश की. नहाने के बाद उन्होंने बकरी का दूध, उबली
सब्ज़ियां, टमाटर और मूली खाई और संतरे का रस भी पिया.
शहर के दूसरे कोने में पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे अब भी गहरी नींद में थे.
डरबन के उनके पुराने साथी रुस्तम सोराबजी सपरिवार गांधी से मिलने आए. इसके बाद रोज़ की तरह वह दिल्ली के मुस्लिम नेताओं
से मिले. उनसे बोले, ''मैं आप लोगों की सहमति के बग़ैर वर्धा नहीं जा सकता.''
गांधी जी के नज़दीकी सुधीर घोष और उनके सचिव प्यारेलाल ने नेहरू और पटेल के बीच मतभेदों पर लंदन टाइम्स में छपी एक टिप्पणी पर उनकी राय मांगी.
इस पर गांधी ने कहा कि वह यह मामला पटेल के सामने उठाएंगे जो चार बजे उनसे मिलने आ रहे हैं और फिर वह नेहरू से भी बात करेंगे
जिनसे शाम सात बजे उनकी मुलाक़ात तय थी.
उधर, बिरला हाउस के लिए निकलने से पहले नाथूराम गोडसे ने कहा कि उनका मूंगफली खाने को जी चाह रहा है. आप्टे उनके लिए
मूंगफली ढूंढने निकले लेकिन थोड़ी देर बाद आकर बोले- ''पूरी दिल्ली में कहीं भी मूंगफली नहीं मिल रही. क्या काजू या
बादाम से काम चलेगा?''
लेकिन गोडसे को सिर्फ़ मूंगफली ही चाहिए थी. आप्टे फिर बाहर निकले और इस बार मूंगफली का बड़ा लिफ़ाफ़ा लेकर वापस लौटे.
गोडसे मूंगफलियों पर टूट पड़े. तभी आप्टे ने कहा कि अब चलने का समय हो गया है.
चार बजे वल्लभभाई पटेल अपनी पुत्री मनीबेन के साथ गांधी से मिलने पहुंचे और प्रार्थना के समय यानी शाम पांच बजे के बाद तक उनसे मंत्रणा करते रहे.
सवा चार बजे गोडसे और उनके साथियों ने कनॉट प्लेस के लिए एक तांगा किया. वहां से फिर उन्होंने दूसरा तांगा किया और बिरला हाउस से दो सौ गज पहले उतर गए.
उधर पटेल के साथ बातचीत के दौरान गांधी चरखा चलाते रहे और आभा का परोसा शाम का खाना बकरी का दूध, कच्ची गाजर, उबली सब्ज़ियां और तीन संतरे खाते रहे.
आभा को मालूम था कि गांधी को प्रार्थना सभा में देरी से
पहुँचना बिल्कुल पसंद नहीं था. वह परेशान हुई, पटेल को टोकने की उनकी हिम्मत नहीं हुई, आख़िरकार वह भारत के लौह पुरुष थे. उनकी
यह भी हिम्मत नहीं हुई कि वह गांधी को याद दिला सकें कि उन्हें देर हो रही है.
बहरहाल उन्होंने गांधी की जेब घड़ी उठाई और धीरे से हिलाकर
गांधी को याद दिलाने की कोशिश की कि उन्हें देर हो रही है.
अंतत: मणिबेन ने हस्तक्षेप किया और गांधी जब प्रार्थना सभा में जाने के लिए उठे तो पांच बज कर 10 मिनट होने को आए थे.
गांधी ने तुरंत अपनी चप्पल पहनी और अपना बायां हाथ मनु और दायां हाथ आभा के कंधे पर डालकर सभा की ओर बढ़ निकले.
रास्ते में उन्होंने आभा से मज़ाक किया.
गाजरों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज तुमने मुझे
मवेशियों का खाना दिया. आभा ने जवाब दिया, ''लेकिन बा
इसको घोड़े का खाना कहा करती थीं.'' गांधी बोले, ''मेरी
दरियादिली देखिए कि मैं उसका आनंद उठा रहा हूँ जिसकी कोई परवाह नहीं करता.''
आभा हँसी लेकिन उलाहना देने से भी नहीं चूकीं, ''आज आपकी घड़ी सोच रही होगी कि उसको नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.''
गांधी बोले, ''मैं अपनी घड़ी की तरफ़ क्यों देखूं.'' फिर गांधी गंभीर हो गए, ''तुम्हारी वजह से मुझे 10 मिनट की देरी हो गई है. नर्स का
यह कर्तव्य होता है कि वह अपना काम करे चाहे वहां ईश्वर भी
क्यों न मौजूद हो. प्रार्थना सभा में एक मिनट की देरी से भी मुझे चिढ़ है.''
यह बात करते-करते गांधी प्रार्थना स्थल तक पहुँच चुके थे. दोनों बालिकाओं के कंधों से हाथ हटाकर गांधी ने लोगों के अभिवादन के जवाब में उन्हें जोड़ लिया.
बाईं तरफ से नाथूराम गोडसे उनकी तरफ झुका और मनु को लगा कि वह गांधी के पैर छूने की कोशिश कर रहा है. आभा ने चिढ़कर कहा
कि उन्हें पहले ही देर हो चुकी है, उनके रास्ते में व्यवधान न उत्पन्न किया जाए. लेकिन गोडसे ने मनु को धक्का दिया और उनके हाथ से माला और पुस्तक नीचे गिर गई.
वह उन्हें उठाने के लिए नीचे झुकीं तभी गोडसे ने पिस्टल निकाल ली और एक के बाद एक तीन गोलियां गांधीजी के सीने और पेट में उतार दीं.
उनके मुंह से निकला, "राम.....रा.....म." और उनका जीवनहीन शरीर नीचे की तरफ़ गिरने लगा.
आभा ने गिरते हुए गांधी के सिर को अपने हाथों का सहारा
दिया. बाद में नाथूराम गोडसे ने अपने भाई गोपाल गोडसे को
बताया कि दो लड़कियों को गांधी के सामने पाकर वह थोड़ा
परेशान हुए थे.
उन्होंने बताया था, ''फ़ायर करने के बाद मैंने कसकर पिस्टल को पकड़े हुए अपने हाथ को ऊपर उठाए रखा और पुलिस....पुलिस
चिल्लाने लगा. मैं चाहता था कि कोई यह देखे कि यह योजना
बनाकर और जानबूझकर किया गया काम था. मैंने आवेश में आकर ऐसा नहीं किया था. मैं यह भी नहीं चाहता था कि कोई कहे कि मैंने घटनास्थल से भागने या पिस्टल फेंकने की कोशिश की थी.
लेकिन यकायक सब चीज़ें जैसे रुक सी गईं और कम से कम एक मिनट तक कोई इंसान मेरे पास तक नहीं फटका.'
नाथूराम को जैसे ही पकड़ा गया वहाँ मौजूद माली रघुनाथ ने अपने खुरपे से नाथूराम के सिर पर वार किया जिससे उनके सिर से ख़ून
निकलने लगा. लेकिन गोपाल गोडसे ने अपनी किताब 'गांधी वध और मैं' में इसका खंडन किया. बकौल उनके पकड़े जाने के कुछ मिनटों
बाद किसी ने छड़ी से नाथूराम के सिर पर वार किया था, जिससे उनके सिर से ख़ून बहने लगा था.
गांधी की हत्या के कुछ मिनटों के भीतर वायसरॉय लॉर्ड
माउंटबेटन वहां पहुंच गए. किसी ने गांधी का स्टील रिम का चश्मा उतार दिया था. मोमबत्ती की रोशनी में गांधी के निष्प्राण
शरीर को बिना चश्मे के देख माउंटबेटन उन्हें पहचान ही नहीं पाए.
किसी ने माउंटबेटन के हाथों में गुलाब की कुछ पंखुड़ियाँ पकड़ा दीं. लगभग शून्य में ताकते हुए माउंटबेटन ने वो पंखुड़ियां गांधी के
पार्थिव शरीर पर गिरा दीं. यह भारत के आख़िरी वायसराय की
उस व्यक्ति को अंतिम श्रद्धांजलि थी जिसने उनकी परदादी के
साम्राज्य का अंत किया था.
मनु ने गांधी का सिर अपनी गोद में लिया हुआ था और उस माथे को सहला रही थीं जिससे मानवता के हक़ में कई मौलिक विचार फूटे थे.
बर्नाड शॉ ने गांधी की मौत पर कहा, ''यह दिखाता है कि
अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है.''
दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के धुर विरोधी फ़ील्ड मार्शल जैन
स्मट्स ने कहा, ''हमारे बीच का राजकुमार नहीं रहा.''
किंग जॉर्ज षष्टम ने संदेश भेजा, ''गांधी की मौत से भारत ही नहीं संपूर्ण मानवता का नुक़सान हुआ है.''
सबसे भावुक संदेश पाकिस्तान से मियां इफ़्तिखारुद्दीन की तरफ़ से आया, ''पिछले महीनों, हममें से हर एक जिसने मासूम मर्दों, औरतों
और बच्चों के ख़िलाफ़ अपने हाथ उठाए हैं या ऐसी हरकत का समर्थन किया है, गांधी की मौत का हिस्सेदार है.''
मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने शोक संदेश में कहा, ''वह हिंदू समुदाय के महानतम लोगों में से एक थे.''
जब जिन्ना के एक साथी ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि
गांधी का योगदान एक समुदाय से कहीं ऊपर उठकर था, जिन्ना अपनी बात पर अड़े रहे और बोले, ''देट इज़ वॉट ही वाज़- अ ग्रेट हिंदू.''
जब गांधी के पार्थिव शरीर को अग्नि दी जी रही थी, मनु ने
अपना चेहरा सरदार पटेल की गोद में रख दिया और रोती चली गईं. जब उन्होंने अपना चेहरा उठाया तो उन्होंने महसूस किया कि
सरदार अचानक बुज़ुर्ग हो चले हैं.
हुई. हमेशा की तरह महात्मा गांधी तड़के साढ़े तीन बजे उठे.
प्रार्थना की, दो घंटे अपनी डेस्क पर कांग्रेस की नई
ज़िम्मेदारियों के मसौदे पर काम किया और इससे पहले कि दूसरे लोग उठ पाते, छह बजे फिर सोने चले गए.
काम करने के दौरान वह अपनी सहयोगियों आभा और मनु का बनाया नींबू और शहद का गरम पेय और मीठा नींबू पानी पीते रहे.
दोबारा सोकर आठ बजे उठे. दिन के अख़बारों पर नज़र दौड़ाई और फिर ब्रजकृष्ण ने तेल से उनकी
मालिश की. नहाने के बाद उन्होंने बकरी का दूध, उबली
सब्ज़ियां, टमाटर और मूली खाई और संतरे का रस भी पिया.
शहर के दूसरे कोने में पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे अब भी गहरी नींद में थे.
डरबन के उनके पुराने साथी रुस्तम सोराबजी सपरिवार गांधी से मिलने आए. इसके बाद रोज़ की तरह वह दिल्ली के मुस्लिम नेताओं
से मिले. उनसे बोले, ''मैं आप लोगों की सहमति के बग़ैर वर्धा नहीं जा सकता.''
गांधी जी के नज़दीकी सुधीर घोष और उनके सचिव प्यारेलाल ने नेहरू और पटेल के बीच मतभेदों पर लंदन टाइम्स में छपी एक टिप्पणी पर उनकी राय मांगी.
इस पर गांधी ने कहा कि वह यह मामला पटेल के सामने उठाएंगे जो चार बजे उनसे मिलने आ रहे हैं और फिर वह नेहरू से भी बात करेंगे
जिनसे शाम सात बजे उनकी मुलाक़ात तय थी.
उधर, बिरला हाउस के लिए निकलने से पहले नाथूराम गोडसे ने कहा कि उनका मूंगफली खाने को जी चाह रहा है. आप्टे उनके लिए
मूंगफली ढूंढने निकले लेकिन थोड़ी देर बाद आकर बोले- ''पूरी दिल्ली में कहीं भी मूंगफली नहीं मिल रही. क्या काजू या
बादाम से काम चलेगा?''
लेकिन गोडसे को सिर्फ़ मूंगफली ही चाहिए थी. आप्टे फिर बाहर निकले और इस बार मूंगफली का बड़ा लिफ़ाफ़ा लेकर वापस लौटे.
गोडसे मूंगफलियों पर टूट पड़े. तभी आप्टे ने कहा कि अब चलने का समय हो गया है.
चार बजे वल्लभभाई पटेल अपनी पुत्री मनीबेन के साथ गांधी से मिलने पहुंचे और प्रार्थना के समय यानी शाम पांच बजे के बाद तक उनसे मंत्रणा करते रहे.
सवा चार बजे गोडसे और उनके साथियों ने कनॉट प्लेस के लिए एक तांगा किया. वहां से फिर उन्होंने दूसरा तांगा किया और बिरला हाउस से दो सौ गज पहले उतर गए.
उधर पटेल के साथ बातचीत के दौरान गांधी चरखा चलाते रहे और आभा का परोसा शाम का खाना बकरी का दूध, कच्ची गाजर, उबली सब्ज़ियां और तीन संतरे खाते रहे.
आभा को मालूम था कि गांधी को प्रार्थना सभा में देरी से
पहुँचना बिल्कुल पसंद नहीं था. वह परेशान हुई, पटेल को टोकने की उनकी हिम्मत नहीं हुई, आख़िरकार वह भारत के लौह पुरुष थे. उनकी
यह भी हिम्मत नहीं हुई कि वह गांधी को याद दिला सकें कि उन्हें देर हो रही है.
बहरहाल उन्होंने गांधी की जेब घड़ी उठाई और धीरे से हिलाकर
गांधी को याद दिलाने की कोशिश की कि उन्हें देर हो रही है.
अंतत: मणिबेन ने हस्तक्षेप किया और गांधी जब प्रार्थना सभा में जाने के लिए उठे तो पांच बज कर 10 मिनट होने को आए थे.
गांधी ने तुरंत अपनी चप्पल पहनी और अपना बायां हाथ मनु और दायां हाथ आभा के कंधे पर डालकर सभा की ओर बढ़ निकले.
रास्ते में उन्होंने आभा से मज़ाक किया.
गाजरों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज तुमने मुझे
मवेशियों का खाना दिया. आभा ने जवाब दिया, ''लेकिन बा
इसको घोड़े का खाना कहा करती थीं.'' गांधी बोले, ''मेरी
दरियादिली देखिए कि मैं उसका आनंद उठा रहा हूँ जिसकी कोई परवाह नहीं करता.''
आभा हँसी लेकिन उलाहना देने से भी नहीं चूकीं, ''आज आपकी घड़ी सोच रही होगी कि उसको नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.''
गांधी बोले, ''मैं अपनी घड़ी की तरफ़ क्यों देखूं.'' फिर गांधी गंभीर हो गए, ''तुम्हारी वजह से मुझे 10 मिनट की देरी हो गई है. नर्स का
यह कर्तव्य होता है कि वह अपना काम करे चाहे वहां ईश्वर भी
क्यों न मौजूद हो. प्रार्थना सभा में एक मिनट की देरी से भी मुझे चिढ़ है.''
यह बात करते-करते गांधी प्रार्थना स्थल तक पहुँच चुके थे. दोनों बालिकाओं के कंधों से हाथ हटाकर गांधी ने लोगों के अभिवादन के जवाब में उन्हें जोड़ लिया.
बाईं तरफ से नाथूराम गोडसे उनकी तरफ झुका और मनु को लगा कि वह गांधी के पैर छूने की कोशिश कर रहा है. आभा ने चिढ़कर कहा
कि उन्हें पहले ही देर हो चुकी है, उनके रास्ते में व्यवधान न उत्पन्न किया जाए. लेकिन गोडसे ने मनु को धक्का दिया और उनके हाथ से माला और पुस्तक नीचे गिर गई.
वह उन्हें उठाने के लिए नीचे झुकीं तभी गोडसे ने पिस्टल निकाल ली और एक के बाद एक तीन गोलियां गांधीजी के सीने और पेट में उतार दीं.
उनके मुंह से निकला, "राम.....रा.....म." और उनका जीवनहीन शरीर नीचे की तरफ़ गिरने लगा.
आभा ने गिरते हुए गांधी के सिर को अपने हाथों का सहारा
दिया. बाद में नाथूराम गोडसे ने अपने भाई गोपाल गोडसे को
बताया कि दो लड़कियों को गांधी के सामने पाकर वह थोड़ा
परेशान हुए थे.
उन्होंने बताया था, ''फ़ायर करने के बाद मैंने कसकर पिस्टल को पकड़े हुए अपने हाथ को ऊपर उठाए रखा और पुलिस....पुलिस
चिल्लाने लगा. मैं चाहता था कि कोई यह देखे कि यह योजना
बनाकर और जानबूझकर किया गया काम था. मैंने आवेश में आकर ऐसा नहीं किया था. मैं यह भी नहीं चाहता था कि कोई कहे कि मैंने घटनास्थल से भागने या पिस्टल फेंकने की कोशिश की थी.
लेकिन यकायक सब चीज़ें जैसे रुक सी गईं और कम से कम एक मिनट तक कोई इंसान मेरे पास तक नहीं फटका.'
नाथूराम को जैसे ही पकड़ा गया वहाँ मौजूद माली रघुनाथ ने अपने खुरपे से नाथूराम के सिर पर वार किया जिससे उनके सिर से ख़ून
निकलने लगा. लेकिन गोपाल गोडसे ने अपनी किताब 'गांधी वध और मैं' में इसका खंडन किया. बकौल उनके पकड़े जाने के कुछ मिनटों
बाद किसी ने छड़ी से नाथूराम के सिर पर वार किया था, जिससे उनके सिर से ख़ून बहने लगा था.
गांधी की हत्या के कुछ मिनटों के भीतर वायसरॉय लॉर्ड
माउंटबेटन वहां पहुंच गए. किसी ने गांधी का स्टील रिम का चश्मा उतार दिया था. मोमबत्ती की रोशनी में गांधी के निष्प्राण
शरीर को बिना चश्मे के देख माउंटबेटन उन्हें पहचान ही नहीं पाए.
किसी ने माउंटबेटन के हाथों में गुलाब की कुछ पंखुड़ियाँ पकड़ा दीं. लगभग शून्य में ताकते हुए माउंटबेटन ने वो पंखुड़ियां गांधी के
पार्थिव शरीर पर गिरा दीं. यह भारत के आख़िरी वायसराय की
उस व्यक्ति को अंतिम श्रद्धांजलि थी जिसने उनकी परदादी के
साम्राज्य का अंत किया था.
मनु ने गांधी का सिर अपनी गोद में लिया हुआ था और उस माथे को सहला रही थीं जिससे मानवता के हक़ में कई मौलिक विचार फूटे थे.
बर्नाड शॉ ने गांधी की मौत पर कहा, ''यह दिखाता है कि
अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है.''
दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के धुर विरोधी फ़ील्ड मार्शल जैन
स्मट्स ने कहा, ''हमारे बीच का राजकुमार नहीं रहा.''
किंग जॉर्ज षष्टम ने संदेश भेजा, ''गांधी की मौत से भारत ही नहीं संपूर्ण मानवता का नुक़सान हुआ है.''
सबसे भावुक संदेश पाकिस्तान से मियां इफ़्तिखारुद्दीन की तरफ़ से आया, ''पिछले महीनों, हममें से हर एक जिसने मासूम मर्दों, औरतों
और बच्चों के ख़िलाफ़ अपने हाथ उठाए हैं या ऐसी हरकत का समर्थन किया है, गांधी की मौत का हिस्सेदार है.''
मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने शोक संदेश में कहा, ''वह हिंदू समुदाय के महानतम लोगों में से एक थे.''
जब जिन्ना के एक साथी ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि
गांधी का योगदान एक समुदाय से कहीं ऊपर उठकर था, जिन्ना अपनी बात पर अड़े रहे और बोले, ''देट इज़ वॉट ही वाज़- अ ग्रेट हिंदू.''
जब गांधी के पार्थिव शरीर को अग्नि दी जी रही थी, मनु ने
अपना चेहरा सरदार पटेल की गोद में रख दिया और रोती चली गईं. जब उन्होंने अपना चेहरा उठाया तो उन्होंने महसूस किया कि
सरदार अचानक बुज़ुर्ग हो चले हैं.
गांधीजी वो शख्शियत जिन्होंने भारत देश को आजादी दिलाई। अहिंसा के पथ पर चलकर बड़ी से बड़ी बाधाओं को पार करने वाले राष्ट्रपिता ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपने मजबूत इरादों के दम पर ही नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया। स्वतंत्रता पाने के बाद बापू में जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी। देश के माहौल ने उनके मन को झकझोर कर रख दिया था जिससे वे बेहद दुखी थे।
' 68 साल पहले आज ही के दिन अहिंसा की प्रतिमूर्ति हिंसा की शिकार हुई थी। 30 जनवरी, 1948 का वह दिन भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के महासंग्राम के महानायक मोहनदास करमचंद गांधी का अंतिम दिन था और मुख से निकला हे राम' अंतिम शब्द था। गांधीजी ने अपने जीवन के 12 हजार 75 दिन स्वतंत्रता संग्राम में लगाए, परंतु उन्हें आजादी का सुकून मात्र 168 दिनों का ही मिला।