भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध को पचास साल पूरे हो चुके हैं।
आइए जानते हैं, भारत-पाक युद्ध का पूरा इतिहास।
- 5 अगस्त 1965 को करीब 30 हजार पाकिस्तानी सैनिक एलओसी पार करके कश्मीर में घुस आए थे।
- सभी ने स्थानीय लोगों की वेशभूषा बना ली थी।
- 15 अगस्त को भारतीय सेना और सरकार को इस घुसपैठ की सूचना मिली।
- स्थानीय मुखबिरों ने सेना के अधिकारियों को इस बारे में जानकारी दी।
- 1 सितंबर को पाकिस्तान की सेना ने आॅपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया।
- इसका मकसद जम्मू के अखनूर जिले पर कब्जा करना था।
- 6 सितंबर को भारतीय सेना ने हमले का जोरदार जवाब दिया।
- भारत ने इसे युद्ध घोषित करते हुए पश्चिमी सीमा से अंतर्राष्ट्रीय सीमा लांघ दी।
- अलग-अलग मोर्चो पर लड़ते हुए भारत ने पाकिस्तान के 1800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया
- जबकि भारत के 550 वर्ग किलोमीटर पर पाक का कब्जा हो गया।
- पाकिस्तान के 90 से ज्यादा अमेरिकन पैटर्न टैंकों को भारतीय सेना ने बर्बाद कर दिया जबकि
- भारत को 30 टैंकों का नुकसान पहुंचा।
- विश्व शक्तियों के हस्तक्षेप के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम घोषित कर दिया गया
- और दोनों देशों की सेना अपनी जगहों पर डट गईं।
- ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री और पाक जनरल अयूब खान के बीच हुए समझौते के बाद दोनों देश
- अप्रैल, 1965 की सीमाओं की स्थिति बनाए रखने पर राजी हो गए।
- 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की प्रमुख जानकारियां
- भारत और पाकिस्तान के बीच यह दूसरी जंग थी।
- इससे पहले 1947 में पाकिस्तान एक बार मुंह की खा चुका था।
- दोनों देशों के बीच अप्रैल 1965 से सितम्बर 1965 के बीच यह जंग हुई थी।
- इसे कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है।
- इस लड़ाई की शुरुआत पाकिस्तान ने अपने सैनिको को घुसपैठियो के रूप मे भेज कर
- इस उम्मीद मे की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी।
- अभियान का नाम पाकिस्तान ने 'जिब्राल्टर' रखा था। पांच महीने तक चलने वाले इस युद्ध मे
- दोनों पक्षो के हजारो लोग मारे गए।
- युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ और ताशकंद मे दोनों
- पक्षो में समझौता हुआ।
- युद्ध में भारतीय सेना ने अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तानी सेना को हराया था।
- कहा तो यह भी जाता है कि इस युद्ध में भारतीय सेना ने लाहौर तक मोर्चा खोल दिया था।
- युद्ध में भारतीय जल सेना ने भी अपना जौहर दिखाया था।
1965 युद्ध के वो वीर जिन्होंने दुश्मन के दांत किए थे खट्टे -
इस युद्ध में भारतीय सेना के जांबाजों ने दुश्मन के दांत खट्टे कर दिए। हर मोर्चे पर पाक को मुंह की खानी पड़ी थी। भारतीय फौज एक समय पाकिस्तान के लाहौर शहर के करीब पहुंच गई थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के दखल के बाद पांच महीने तक चले इस युद्ध की समाप्ति शिमला समझौते के साथ हुई। इस युद्ध में भारतीय फौजियों ने अदम्य साहस का परिचय दिया था। आइये जानते हैं उन रणबांकुरों में से कुछ खास के बारे में।
अब्दुल हमीद
1965 भारत-पाक युद्ध में पाक सेना ने खेमकरण सेक्टर के पांच किलोमीटर दायरे में भारतीय इलाके में कब्जा कर लिया। लेकिन भारतीए सेना ने हिम्मत न हारते हुए 10 सिंतबर को जवाबी हमला कर उत्तर आसल गांव के पास चक्रव्यूह रच कर पाक के 100 टैंकों को इस कदर नष्ट कर दिया जोकि आने वाले समय तक एक इतिहास बना रहेगा। इस युद्ध में अब्दुल हमीद ने अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए अपनी राइफल से तीन पाक टैंकों को नष्ट कर दिया तथा यही से भारतीय सेना ने पाक टैंकों को इस प्रकार घेरे में ले लिया कि उन्हें किसी भी तरफ भागने का रास्ता ही नहीं मिला और 100 टैंकों की कब्रगाह उत्तर आसल में बना दी गई। हमीद को इस बहादुरी के लिए मरणोपरांत सर्वश्रेष्ठ बहादुरी पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया।
एबी तारापोर
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में सात से 11 सितंबर तक सियालकोट (पाकिस्तान) के फिल्लौरी नामक स्थान पर निर्णायक युद्ध हुआ था। इसे भारतीय सेना इतिहास में सबसे घातक युद्धों में शामिल किया जाता है। इस क्षेत्र पर अधिकार करने की जिम्मेदारी प्रथम आर्म्ड डिवीजन के तहत पूना हार्स रेजीमेंट के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल एबी तारापोर को सौंपी गई। 7 सितंबर को फिल्लौरी में रेजीमेंट का सामना पाकिस्तान की पैटन टैंक से हुआ। अमेरिका की ओर से सबसे मजबूत और खतरनाक बताए जा रहे पैटन टैंक से सीधी लड़ाई में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को धूल चटा दी। लेफ्टिनेंट कर्नल एबी ताराबोर के नेतृत्व में गोलंदार (निशाना लगाने वाला) ने इतने सटीक लक्ष्य भेदे कि पाकिस्तानी सेना के 65 पैटन टैंक बर्बाद हो गए। युद्ध में पूना हार्स के केवल नौ टैंक बर्बाद हुए थे। बहादुरी के दम पर युद्ध के नतीजों को बदलने के बाद 16 सितंबर को लेफ्टिनेंट कर्नल एबी तारापोर युद्ध के मैदान पर ही शहीद हो गए। फिल्लौरी के युद्ध में भारतीय सेना के पांच आफिसर व 64 सैनिक शहीद हुए थे। तारोपोर को बहादुरी के परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
हवलदार जस्सा सिंह
भारतीय सेना के हवलदार जस्सा सिंह अहलुवालिया ने बहादुरी दिखाते हुए 9 सितंबर 1965 को फाजिल्का के गांव चाननवाला के निकट मुकाबला करते हुए कई पाक दुश्मनों को मार गिराया। वह तो भारत पाक युद्ध के गैलेंट हीरो थे। इतना ही नहीं, वह लड़ते-लड़ते इतने जोश में आ गए कि वह पाकिस्तानी बंकर में जा पहुंचे। पाकिस्तानियों का मुकाबला करते हुए जब उनकी बंदूक में गोलियां खत्म हो गईं तो नजदीक आ रहे दुश्मनों को बंदूक की बट से मारना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी हमले में लहूलुहान हुए जस्सा सिंह ने जहां उनके असले को नकारा कर दिया, वहीं उन्होंने 7 दुश्मनों को भी मार गिराया। इस बीच भारतीय सेना के अन्य जवान आ गए और उन्होंने जस्सा सिंह को घायल अवस्था में संभाला। युद्ध की समाप्ति के बाद उन्हें बहादुरी के लिए वीर चक्र से नवाजा गया।
सलीम क्लेब
1965 में हुए यद्ध के नायक रहे मेजर जनरल सलीम क्लेब ने पाकिस्तानी सेना के 15 टैंकों को नष्ट करने और 9 टैंकों को पकड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्हें युद्ध के समय दूसरे सबसे बड़े पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। इनका निधन इसी साल जनवरी में हो गया।
हनुत सिंह
भारत-पाक युद्ध 1965-71 में लेफ्टिनेंट जनरल हनूत सिंह ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे। युद्ध में अदम्य साहस के लिए उन्हें महावीर चक्र से नवाजा गया था। युद्ध में सेना की कमान संभालते हुए सीमा पर उन्होंने दुश्मनों से लोहा लिया। वीरता का परिचय देते हुए पाक के 60 टैंक नष्ट करने में सफलता हासिल की। उनके कदम नहीं रुके और लगातार आगे बढ़ते रहे। इसके बाद भारत-पाक युद्ध 1971 में नेतृत्व की बागडोर संभालते हुए पाक सैनिकों को धूल चटा दी।
रंजीत सिंह दयाल
1965 के युद्ध में पंजाब रेजीमेंट के अफसर रंजीत सिंह के नेतृत्व में सेना ने रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उरी सेक्टर में पाकिस्तान के हाजी पीर दर्रे पर कब्जा किया था। यहां पर कब्जे के बाद पाकिस्तानी फौज का भारत की ओर आना नामुमकिन हो गया। उन्हें वीरता और अदम्य साहस के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 2012 में उनका 84 साल की उम्र में निधन हो गया। ऑपरेशन ब्लू स्टार की योजना भी रंजीत सिंह ने ही बनाई थी।
इसके अतिरिक्त 1965 के युद्ध में कई वीरों को महावीर चक्र से नवाजा गया जिनमें प्रमुख हैं- श्माम देव गोस्वामी, वेदप्रकाश त्रेहन, सुशील कुमार माथुर, बलजीत सिंह रंधावा, जोरावर सिंह बख्शी, गुरवंश सिंह सांगा, भास्कर रॉय, खेमकरन सिंह, प्रेम लाल सिंह, मदन मोहन सिंह बख्शी, हरभजन सिंह, संत सिंह, गाैतम मुबाई, दर्शन सिंह, भूपिंदर सिंह आदि।
यह युद्ध कई मायनों में न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान के लिए भी महत्वपूर्ण था। पाकिस्तान को यह बात समझ में आ गई थी कि अगर उसने कश्मीर पर कब्जे का दुस्साहस किया तो भारतीय सेना उसे मुंहतोड़ और करारा जवाब देगी।
आपको बता दें कि 1965 के युद्ध में पाकिस्तान की मदद अमेरिका ने की थी। लेकिन भारतीय सेना ने पाकिस्तान को जो सबक सिखाया उसे वह आज तक नहीं भूला है। इसके बाद हमारे पड़ोसी देश ने कश्मीर में आतंकी वारदातों को अंजाम देना शुरू कर दिया था।
पाकिस्तान का सपना कश्मीर
पाकिस्तान पिछले 50 वर्षों से कश्मीर को हासिल करने का सपना देख रहा है। लेकिन अब तक वह अपने मंसूबे में सफल नहीं हो पाया है। आइए जानते हैं कि आखिरी 1965 के इस युद्ध की शुरुआत क्यों हुई थी:
1965 के युद्ध के पीछे भी पाकिस्तान की प्रमुख मंशा कश्मीर पर कब्जा करना थी। गुजरात में कच्छ सीमा विवाद पर ब्रिटेन के हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तान को यह सपना काफी आसान लगने लगा था। उस समय पाकिस्तान में सेना ने सरकार का तख्ता पलट कर दिया था और जनरल अयूब खान ने स्वयं को राष्ट्रपति घोषित कर दिया था।
अयूब के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना के हौंसले बढ़ गए और उन्होंने कश्मीर पर कब्जे की नीयत से भारतीय सीमा पर हमला कर दिया था। उस समय तनाव की स्थिति को सोवियत यूनियन और अमेरिका के हस्तक्षेप के बाद सुलझाया जा सका था।
ताशकंद समझौते के बाद दोनों के बीच युद्धविराम कायम हुआ था। विशेषज्ञों की मानें तो पाकिस्तान इससे खुश नहीं था। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश पाकिस्तान के सरपरस्त थे और पाक ने उनकी सहानुभूति का फायदा भी उठाया।
वर्ष 1962 में चीन के साथ युद्ध की वजह से भारत की स्थिति कुछ कमजोर दिख रही थी। पाकिस्तान इस बात पर यकीन करता था कि कश्मीर की जनता भारतीय शासन के खिलाफ है। ऐसे में वह कश्मीर में आजादी के नाम पर आंदोलन शुरू करना चाहता था। इसके लिए कश्मीर में 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' की शुरुआत की गई थी।
लेकिन कश्मीर की जनता ने उस समय भी वहां पर मौजूद घुसपैठियों के बारे में जानकारी दी थी। इसके आधार पर सेना ने कार्रवाई शुरू की और युद्ध की शुरुआत हुई। भारतीय सेना ने इस युद्ध पर विजय पाकर इस ऑपरेशन को खत्म किया।
1965 में टाइम मैगजीन ने माना था भारत को दुनिया में उभरती ताकत -
भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 का युद्ध कई मायनों में खास माना जाता है। इसको खास मानने की सबसे बड़ी वजह एक यह भी थी कि इस युद्ध आजादी के बाद पहली बार भारतीय सेना सीमा रेखा को पार कर पाकिस्तान के लाहौर तक पहुंच गई थी। इस लड़ाई में देश ने प्रधानमंत्री के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री की कमाल की लीडरशीप भी देखी। छह सितंबर को भारत की ओर से इस युद्ध की शुरुआत की आधिकारिक घोषणा की गई। यह युद्ध 23 सितंबर 1965 को भारत की जीत के साथ खत्म हुआ था। उस समय टाइम मैगजीन ने लिखा था कि साफ हो गया है कि भारत अब दुनिया में नई एशियन ताकत बनकर उभर रहा है।
शास्त्री जी ने दिया था 'जय जवान-जय किसान' का नारा
शास्त्रीजी ने इस युद्ध में राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया। यही वह समय था जब उन्होंने 'जय जवान-जय किसान' का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। इस लड़ाई के लिए रणनीति बनाने के लिए शास्त्री ने सेना को पूरे अधिकार दिए थे। उनका साफ तौर पर सेना प्रमुख से कहा कि सेना को देश की रक्षा करनी है वह बताएं कि उन्हें क्या करना है। इससे उत्साहित सेना ने भारतीय सेना ने संख्या में कम होेते हुए भी पाकिस्तान का डटकर मुकाबला किया और लाहौर तक पहुंच गई। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की।
न भारत जीता न पाकिस्तान हारा:
स्थान रक्षा मंत्रालय का कार्यालय. रूम नंबर 108. साउथ
ब्लॉक, नई दिल्ली. दिन सितंबर 1, 1965. समय दोपहर 4 बजे.
रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण, एयर मार्शल अर्जन सिंह, रक्षा
मंत्रालय में विशेष सचिव एचसी सरीन, एडजुटेंट जनरल लेफ़्टिनेंट
जनरल कुमारमंगलम के साथ गहन मंत्रणा में व्यस्त थे.
मुद्दा था छंब सेक्टर में उस दिन सुबह हुआ पाकिस्तानी टैंकों और
तोपों का ज़बरदस्त हमला जिसने भारतीय सेना और ख़ुफ़िया
एजेंसियों को अचरज में डाल दिया था.
पाकिस्तान का हमला तड़के साढ़े तीन बजे शुरू हुआ था और नौ
बजते-बजते छंब उनके क़ब्ज़े में था. एक दिन पहले ही हालात का
जायज़ा लेने के लिए थल सेनाध्यक्ष जनरल जेएन चौधरी कश्मीर गए
थे. वो उस दिन वहाँ से वापस आने वाले थे.
बैठक शुरू हुए अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि जनरल चौघरी ने
कमरे में प्रवेश किया.
उन्होंने एयर मार्शल अर्जन सिंह के साथ कुछ देर दबे शब्दों में बात
की और रक्षा मंत्री चव्हाण की तरफ़ देख कर कहा कि उन्हें छंब
सेक्टर में वायु सेना के इस्तेमाल की अनुमति दी जाए. चौधरी ने
चव्हाण से ये भी कहा कि उन्हे जवाबी हमला करने के लिए सीमा
पार करने की इजाज़त भी दी जाए.
बमबारी का फ़ैसला चव्हाण कुछ मिनटों तक सोचते रहे जबकि कमरे में मौजूद सभी लोगों की निगाहें उन पर लगी हुई थीं. फिर उन्होंने मुलायम लेकिन दृढ़ आवाज़ में बोलना शुरू किया, "भारत सरकार आपको छंब में वायु सेना के इस्तेमाल की इजाज़त देती है. आप सीमा पर भारतीय
सैनिकों के लिए भी सिग्नल जारी करें."
रक्षा सचिव पीवीआर राव ने चव्हाण के मौखिक आदेशों को
रिकॉर्ड किया. समय था चार बजकर 45 मिनट. पांच बजकर 19
मिनट पर भारत के वैंपायर विमानों ने छंब पर बमबारी करने के लिए
टेक ऑफ़ किया.
कुछ करना होगा उसी दिन स्थान 10 जनपथ, प्रधानमंत्री का कार्यालय. समय रात के 11 बजकर 45 मिनट. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अचानक अपनी कुर्सी से उठे और अपने दफ़्तर के कमरे के एक छोर से दूसरे छोर तक तेज़ी से चहलक़दमी करने लगे.
कुछ करना होगा उसी दिन स्थान 10 जनपथ, प्रधानमंत्री का कार्यालय. समय रात के 11 बजकर 45 मिनट. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अचानक अपनी कुर्सी से उठे और अपने दफ़्तर के कमरे के एक छोर से दूसरे छोर तक तेज़ी से चहलक़दमी करने लगे.
शास्त्री के सचिव सीपी श्रीवास्तव ने बाद में अपनी किताब 'ए
लाइफ़ ऑफ़ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स' में लिखा, "शास्त्री ऐसा तभी
करते थे जब उन्हें कोई बड़ा फ़ैसला लेना होता था. मैंने उनको
बुदबुदाते हुए सुना... अब तो कुछ करना ही होगा."
आधी रात के बाद शास्त्री अपने दफ़्तर के बग़ल में अपने निवास
स्थान पर कुछ घंटों की नींद लेने पहुंचे. श्रीवास्तव लिखते हैं कि
उनके चेहरे को देख कर ऐसा लग रहा था कि उन्होंने कोई बड़ा
फ़ैसला कर लिया है.
कुछ दिनों बाद हमें पता चला कि उन्होंने तय किया था कि
कश्मीर पर हमले के जवाब में भारतीय सेना लाहौर की तरफ़ मार्च
करेगी. लेकिन उस समय तक उन्होंने ये बात किसी से साझा नहीं
की. अगले दिन और फिर तीन सितंबर को दोबारा उन्होंने
मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और पाकिस्तान पर हमला करने की
योजना को अंतिम रूप दिया.
डिसपैच राइडर पकड़ा गया उधर तीन-चार सितंबर की रात को पाकिस्तान में डिवीज़न हेडक्वार्टर के कर्नल एस.जी. मेंहदी ने मिलिट्री इंटेलिजेंस के मुख्यालय में लेफ़्टिनेंट कर्नल शेर ज़माँ को फ़ोन कर बताया कि उन्होंने भारत के एक डिसपैच राइडर को पकड़ा है जो कि भारत की फ़र्स्ट आर्मर्ड डिवीज़न के लिए एक पत्र ले कर जा रहा था.
उसमें बताया गया है कि भारत लाहौर पर हमला करने वाला है
जिसे ऑपरेशन नेपाल का नाम दिया गया है.
पाकिस्तान ने इस लीड को गंभीरता से नहीं लिया. उन्हें लगा कि
भारत ने जानबूझ कर उन्हें गुमराह करने के लिए डिसपैच राइडर को
पकड़वाने का नाटक रचा था. उस समय पाकिस्तान के मिलिट्री
ऑपरेशन के महानिदेशक लेफ़्टिनेंट जनरल गुल हसन खाँ अपनी
आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्हें याद है कि उन्होंने चीफ़ ऑफ़ जनरल
स्टाफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल शेर बहादुर को इस बारे में बात कर सुझाव
दिया था कि पाकिस्तान अपनी सेना को सीमा पर रक्षात्मक
पोज़ीशन पर ले आए.
शेर बहादुर ऐसा करने में झिझक रहे थे क्योंकि पाकिस्तान के विदेश
मंत्रालय ने ताकीद कर रखी थी कि भारत को किसी भी हालत
में भड़कने का मौक़ा न दिया जाए. पाकिस्तान के थल सेनाध्यक्ष
जनरल मूसा उस दिन छंब का दौरा कर रहे थे और देर रात तक वापस
नहीं लौटे थे.
जनरल मूसा और मेलविल डिमैलो
चार सितंबर की शाम जनरल हेडक्वार्टर के ऑपरेशन रूम में
पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल मूसा आकाशवाणी का बुलेटिन
सुन रहे थे. उद्घोषक मेलविल डिमैलो ने श्रोताओं का आगाह
किया कि एक महत्वपूर्ण फ़्लैश के लिए तैयार रहिए. उन्होंने
घोषणा की, प्रधानमंत्री ने लोकसभा को सूचित किया है कि
पाकिस्तानी सेना ने सियालकोट सेक्टर से जम्मू की तरफ़ बढ़ना
शुरू कर दिया है.
जनरल मूसा और डिमैलो बैच मेट थे और दोनों को साथ साथ
देहरादून में इंडियन मिलिट्री अकादमी में कमीशन मिला था. बाद
में डिमैलो सेना छोड़ कर आकाशवाणी चले गए थे. पाकिस्तानी
सेना के बढ़ने की ख़बर पूरी तरह से ग़लत थी. मूसा ताज़ा हवा लेने के
लिए ऑपरेशन रूम से बाहर आए. उन्हें डिमैलो के ग़लत ख़बर देने और
बोलने के अंदाज़ से लगा कि भारत कुछ बहुत बड़ा करने जा रहा है.
ऑपरेशन बैंगिल
पहले तय हुआ कि एच आवर यानि हमला करने का समय सात सितंबर
को सुबह चार बजे होगा. लेकिन पश्चिम क्षेत्र के कमांडर-इन-चीफ़
लेफ़्टिनेंट जनरल हरबख़्श सिंह ने 24 घंटे पहले यानि छह सितंबर को
आगे बढ़ने का फ़ैसला किया. इस पूरे ऑप्रेशन का कोड वर्ड था
‘बैंगिल.’ सेना मुख्यालय से एक और कोडवर्ड भेजा गया ‘बैनर’. इस
का अर्थ था कि इस अभियान को नियत समय पर शुरू किया जाए.
पाकिस्तान को इसकी भनक न लगे ये सुनिश्चित करने के लिए
जनरल हरबख़्श सिंह जानबूझ कर शिमला में एक पूर्व निर्धारित
दोपहर भोज में शामिल हुए. भोज ख़त्म होते ही एक हेलिकॉप्टर
उन्हें दोबारा सीमा पर ले आया. वो पहले अमृतसर में रुके और उन्होंने
पूरे शहर में कर्फ़्यू लगाने का आदेश दिया. निर्धारित समय पर
भारत ने चार जगहों से पाकिस्तानी सीमा के अंदर प्रवेश किया
और कुछ ही घंटों में डोगराई के उत्तर में भसीन, दोगाइच और
वाहग्रियान पर क़ब्ज़ा कर लिया.
मेजर जनरल निरंजन प्रसाद की 15 डिवीज़न ने तो इच्छोगिल नहर
पार कर ली और उनके कुछ सैनिक बाटापुर पहुंच गए जहाँ जूते बनाने
वाली कंपनी बाटा की एक फ़ैक्ट्री थी. वहाँ से जो तस्वीरें भेजी
गईं, उसके आधार पर बीबीसी ने भी ग़लत ख़बर प्रसारित की कि
भारतीय सेना लाहौर में घुस चुकी है.
अयूब की डांट पाकिस्तान के राष्ट्रपति फ़ील्ड मार्शल अयूब ख़ाँ को इस हमले की सूचना रावलपिंडी में एयर डिफ़ेंस हेडक्वार्टर में तैनात एयर
कोमॉडोर अख़्तर ने दी. अयूब ने इसकी उम्मीद नहीं की थी.
उन्होंने आईएसआई के प्रमुख ब्रिगेडियर रियाज़ हुसैन को फ़ोन
मिलाया. रियाज़ को तब तक भनक भी नहीं थी कि भारतीय
सेना पाकिस्तान में घुस चुकी है.
अयूब उन पर चिल्ला पड़े, "भारत की पहली आर्मर्ड डिवीज़न भूसे में
सुई की तरह नहीं है कि आप को पता ही न चल सके कि वो इस समय
कहाँ है?" ब्रिगेडियर रियाज़ ने कांपती हुई आवाज़ में जवाब दिया, "सर हमें दोष मत दीजिए. जून 1964 से ही मिलिट्री इंटेलिजेंस को सिर्फ़
राजनीतिक ज़िम्मेदारियाँ दी जा रही है." विदेश मंत्री भुट्टो
और विदेश सचिव अज़ीज़ अहमद पहले दिन से अयूब को आश्वस्त कर
रहे थे कि भारत पंजाब पर आक्रमण नहीं करेगा.
नौ बजे पाकिस्तानी सेना के चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टॉफ़ ने जनरल
हेडक्वार्टर को सूचित किया कि भारत ने लाहौर और
सियालकोट पर हमला बोल दिया है. उनके आख़िरी शब्द थे, "जो
कुछ भी हमारे पास है वो शो विंडो में ही है. इसके अलावा हमारे
पास कुछ भी नहीं है. गुड लक."
मेजर अज़ीज़ भट्टी की बहादुरी
ये वाक़्या पाकिस्तान की असली सैनिक स्थिति को रेखाँकित
करता था, हांलाकि उसके पास आला दर्जे के अमरीकी हथियार
थे. पाकिस्तान के नेतृत्व की फ़ैसले लेने की क्षमता पर कई सवाल
उठाए गए.
अगले 22 दिनों में हुई बड़ी लड़ाइयों में दोनों देशों के निचले स्तर के
अफ़सरों और सैनिकों ने शानदार प्रदर्शन किया, लेकिन कमान के
स्तर पर दोनों तरफ़ से कई बड़ी ग़लतियाँ हुईं.
बर्की के मोर्चे पर पाकिस्तान के मेजर अज़ीज़ भट्टी ने पांच
दिनों तक भारतीय सैनिकों की ज़बर्दस्त गोलाबारी का
मुक़ाबला किया. इस दौरान वो हमेशा सबसे आगे रहे और आख़िर में
एक भारतीय टैंक के गोले का शिकार हुए. उन्हें पाकिस्तान का
सर्वोच्च वीरता पुरस्कार निशान-ए हैदर-दिया गया.
उस लड़ाई में भारत की ओर से लड़ने वाले ब्रिगेडियर कंवलजीत सिंह
कहते हैं, "पाकिस्तान के सैनिक जिस तरह हमारे ऊपर इतना एक्युरेट
फ़ायर कर रहे थे, उससे साफ़ लगता था कि उनका अफ़सर किस स्तर
का आर्टलरी अफ़सर होगा. भट्टी को ये श्रेय जाता है कि उन्होंने
इतनी देर तक और इतने अच्छे तरीक़े से मोर्चा संभाला."
सेल्यूट न कर पाने पर आँसू
उसी तरह भारत की तरफ़ से 4-हॉर्स के मेजर भूपेंदर सिंह ने फ़िलौरा
की लड़ाई में अदम्य बहादुरी का परिचय दिया. उन्होंने कई
पाकिस्तानी टैंक बरबाद किए. उनके टैंक पर पाकिस्तानियों ने
कोबरा मिसाइल से हमला किया. उससे इतनी गर्मी पैदा हुई कि
भूपेंदर सिंह का कड़ा गल कर उनकी खाल में घुस गया.
उनके बदन के सारे कपड़े और उनकी पूरी खाल बुरी तरह से जल गई.
उनको इलाज के लिए दिल्ली के बेस हॉस्पिटल लाया गया. वो इस
बुरी तरह जले हुए थे कि उनके ज़ख्मों पर पट्टी तक नहीं लगाई जा
सकती थी. इसी दौरान प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री उनसे
मिलने गए. जब वो उनके सामने पहुंचे तो मेजर भूपेंदर की आँखों से आँसू निकल आए.
शास्त्री ने उनसे कहा, "आप इतनी बहादुर सेना के इतने बहादुर
सिपाही है. आप की आँखों पर आँसू शोभा नहीं देते." मेजर भूपेंदर ने
कहा, "मैं इसलिए नहीं रो रहा हूँ कि मुझे दर्द है. मैं इस लिए रो रहा
हूँ कि एक सिपाही खड़े हो कर अपने प्रधानमंत्री को सेल्यूट नहीं
कर पा रहा है." मेजर भूपेंदर को बचाया नहीं जा सका लेकिन उन्हें
मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया.
अयूब का टेक ऑफ़, भारत का हमला
लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल शास्त्री ने बीबीसी को
बताया कि लड़ाई के दौरान प्रधानमंत्री निवास स्थान 10 जनपथ
पर उनके परिवार की सुरक्षा के लिए एक बंकर बनाया गया था.
दिन में कम से कम एक बार वहाँ पूरा शास्त्री परिवार इकट्ठा
होता था.
वैसे सुरक्षा के लिहाज़ से शास्त्री जी का पूरा परिवार
ज़्यादातर राष्ट्रपति भवन में सोने जाया करता था. ऐसा
तत्कालीन राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन के ख़ास अनुरोध पर किया
गया था क्योंकि राधाकृष्णन का मानना था कि राष्ट्रपति
भवन की दीवारें कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं.
उधर फ़ील्ड मार्शल अयूब खाँ अपने शयन कक्ष में जब तक मौजूद रहते
वहाँ हरी बत्ती जलती रहती. 19 सितंबर को उन्होंने विदेश मंत्री
भुट्टो के साथ गुप्त रूप से चीनी नेताओं से बात करने के लिए चीन
जाने का फ़ैसला किया. उनके बेडरूम की हरी बत्ती जलते रहने दी
गई ताकि पूरी दुनिया को ये आभास रहे कि वो रावलपिंडी में हैं.
यहाँ तक कि उनका स्टाफ़ रोज़मर्रा की तरह उनके बेडरूम में बेड टी
पहुंचाता रहा.
यात्रा को गुप्त रखने के लिए उन्होंने रावलपिंडी के बजाए पेशावर
से बीजिंग के लिए उड़ान भरने का फ़ैसला किया. जब उनका
जहाज़ टेक ऑफ़ कर ही रहा था कि भारतीय युद्धक विमानों ने
पेशावर हवाई अड्डे पर हमला बोल दिया. टेक आफ़ रोका गया
लेकिन जहाज़ के इंजिन को बंद नहीं किया गया. जैसे ही भारतीय
विमान हमला करके वापस अपने देश के लिए उड़े, अयूब खाँ के
विमान ने बीजिंग के लिए उड़ान भरी.
लड़ाई जारी रखने की झिझक
बाइस दिनों तक चलने वाली इस लड़ाई में भारत के क़रीब 3,000 और
पाकिस्तान के क़रीब 3,800 सैनिक मारे गए. टाइम पत्रिका ने
लिखा कि युद्ध विराम के समय भारत के पास पाकिस्तान का
690 वर्ग मील क्षेत्र था जबकि पाकिस्तान ने भारत के 250 वर्ग
किलोमीटर क्षेत्र पर क़ब्ज़े का दावा किया था. दोनों देशों ने
जीत का दावा किया लेकिन वास्तव में दोनों ही देश अपने सैनिक
उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहे.
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी से
पूछा, "अगर लड़ाई को कुछ दिनों तक और जारी रखा जाए तो
क्या भारत की जीत हो सकती है."
जनरल ने जवाब दिया कि भारत के सभी मुख्य हथियार इस्तेमाल
हो चुके हैं और बहुत से टैंक भी बरबाद हुए हैं. लेकिन वास्तव में 22
सितंबर तक भारत ने सिर्फ़ 14 फ़ीसदी असलहे का इस्तेमाल किया
था.
दूसरी तरफ़ जब अयूब ने यही सवाल अपने जनरलों से पूछा तो जनरल
मूसा और एयर मार्शल नूर ख़ाँ दोनों ने लड़ाई को जारी रखने के
ख़िलाफ़ सलाह दी. अयूब इस युद्ध से इतने हतोत्साहित हुए कि
उन्होंने एक मंत्रिमंडल की बैठक में कहा, "मैं चाहता हूँ कि यह समझ
लिया जाए कि पाकिस्तान 50 लाख कश्मीरियों के लिए 10
करोड़ पाकिस्तानियों की ज़िंदगी कभी नहीं ख़तरे में
डालेगा...कभी नहीं."
17 दिनों तक चला था युद्ध
भारत और पाकिस्तान के बीच यह युद्ध 17 दिनों तक चला। दोनों ही पक्षों को जानमाल का काफी नुकसान उठाना पड़ा। 5 अगस्त 1965 को भारत के 26,000 और पाकिस्तान 33,000 सैनिकों ने लाइन ऑफ कंट्रोल को पार किया था। 15 अगस्त को भारतीय सैनिकों ने उस समय तय की हुई सीजफायर लाइन को पार कर डाला। इसके बाद पाकिस्तान ने एक सितंबर 1965 को ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम के नाम से एक खास मिशन शुरू किया। इसका मकसद जम्मू के अखनूर सेक्टर को अपने कब्जे में लेना था। इसमें भारतीय सेना को काफी नुकसान भी पहुंचा था।
भारत और पाकिस्तान के बीच यह युद्ध 17 दिनों तक चला। दोनों ही पक्षों को जानमाल का काफी नुकसान उठाना पड़ा। 5 अगस्त 1965 को भारत के 26,000 और पाकिस्तान 33,000 सैनिकों ने लाइन ऑफ कंट्रोल को पार किया था। 15 अगस्त को भारतीय सैनिकों ने उस समय तय की हुई सीजफायर लाइन को पार कर डाला। इसके बाद पाकिस्तान ने एक सितंबर 1965 को ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम के नाम से एक खास मिशन शुरू किया। इसका मकसद जम्मू के अखनूर सेक्टर को अपने कब्जे में लेना था। इसमें भारतीय सेना को काफी नुकसान भी पहुंचा था।