प्याज़ आम आदमी की रोज़मर्रा की ख़ूराक का अभिन्न अंग है.
रोटी-दाल-चावल की तरह इसके बिना हम ज़िंदा नहीं रह सकते. यह बात तयशुदा तरीक़े से नहीं कही जा सकती कि प्राचीन भारत में प्याज़ आम आदमी के खानपान का हिस्सा था. यों कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि प्याज़ की खेती
तक़रीबन पाँच हज़ार साल से की जा रही है.
रोटी-दाल-चावल की तरह इसके बिना हम ज़िंदा नहीं रह सकते. यह बात तयशुदा तरीक़े से नहीं कही जा सकती कि प्राचीन भारत में प्याज़ आम आदमी के खानपान का हिस्सा था. यों कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि प्याज़ की खेती
तक़रीबन पाँच हज़ार साल से की जा रही है.
इतिहास
यह भी क़यास ही है कि प्याज़ की जन्मभूमि उत्तरी एशिया में
कहीं है जहाँ से यह मिस्र के रास्ते यूरोप तक पहुंचा.
यह दावा बेबुनियाद है कि पुर्तगाली इसे अपने साथ लाए, उसी
टोकरी में, जिसमें मिर्ची, टमाटर, आलू, तंबाकू वग़ैरह थे.
इस ग़लतफ़हमी की जड़ गोवा में पकाया जाने वाला विंडालू है
जिसमें प्याज़ का बेमिसाल मज़ा मिलता है.
आयुर्वेद के ग्रंथ भावप्रकाश निघंटु में पलांडु नाम से पुकारा जाने वाला प्याज़ ख़ास है, आम नहीं.
पश्चिमी विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि ईसा के जन्म से तीन
हज़ार साल पहले इसके सूराग़ पिरामिडों में मिले हैं.
लेकिन इसका उपयोग खाने के लिए नहीं राजसी शवों के संरक्षण के लिए किया गया था.
मध्य युग तक औषधीय गुणों के कारण ही प्याज़ मशहूर थी.
उसके बाद मध्य एशिया और भूमध्यसागरतटवर्ती प्रदेश में इसका ज़ायक़ा सिर पर चढ़ कर बोलने लगा.
जुबान पर जमाया ज़ायका
सल्तनत काल में ही हिंदुस्तानियों की ज़ुबान पर प्याज़ का
प्रभुत्व स्थापित हुआ.
किसी भी नई चीज़ की तरह आरंभ में प्याज़ का उपयोग
अभिजात्य शासक वर्ग तक सिमटा रहा.
हम इससे अपरिचित नहीं थे बल्कि मानसिक विकार पैदा करने वाले प्याज़ से लोग परहेज़ करते थे.
पुरानी हिंदी कहावत है, 'नया-नया मुल्ला ज़्यादा प्याज़ खाता
है.'
आज के सांप्रदायिक प्रदूषण से परेशान भारत में इस कहावत की याद दिलाते भी संकोच होता है.
पर हक़ीक़त यह है कि इसके बिना गुज़र नहीं होती नज़र आ रही. मुल्ला दो प्याज़ा के नाम की व्याख्या चाहे जैसे करें- वह हर खाने में दो प्याज़ खाते थे, या दो प्याज़ा नामक व्यंजन के फ़रमाइशी आविष्कारक थे.
ये इसी धारणा को पुष्ट करता है कि अमीर उमरा ही प्याज़ को
मुंह लगाते थे.
ये दो प्याज़ा है क्या?
चलते चलते यह पहेली भी बुझा लें कि दो प्याज़ा है किस बला का नाम?
वह माँसाहारी व्यंजन जिसमें माँस से दोगुना प्याज़ डाला जाता
है या दो तरह का (कच्चा हरा और पका लाल) प्याज़ इस्तेमाल
होता है या पकाने के दौरान दो बार अलग-अलग वक्त पर प्याज़ पडता है.
पाक विद्या विषाद सालाना नरेश की मानें तो दो प्याज़ा
बिना प्याज़ के भी पकाया जा सकता है किसी दूसरी सब्ज़ी के
साथ! जान पडता है प्याज़ की बढ़ती क़ीमत का पूर्वानुमान कर उन्होंने यह नायाब नुस्ख़ा ईजाद किया था.
यानी इस ग़लतफ़हमी से फ़ौरन छुटकारा पाने की ज़रूरत है कि प्याज़ आम हिंदुस्तानी की ख़ूराक का अनिवार्य हिस्सा है या हमेशा से रहा है.
पराई हो गई प्याज़
वह ज़माना कब का बीत चुका जब एक मुहावरे में यह ज्ञान दान दिया जाता था कि ग़रीब आदमी सिर्फ़ प्याज़ की एक गाँठ के सहारे सूखी रोटी निगल कर बसर कर सकता है.
लगातार आसमान छूती क़ीमतों ने प्याज़ को बहुत पहले आम
आदमी की पहुंच के परे कर दिया था.
हालांकि देश की आबादी का एक हिस्सा पारंपरिक रूप से प्याज़ से परहेज़ करता है मसलन अधिकाँश जैन, कुछ वैश्य और ब्राह्मण.
अनेक शाकाहारी व्यंजनों में प्याज़ इस्तेमाल नहीं होता- हरी
सब्ज़ियाँ हों अथवा कद्दू, लौकी, तुरई, सेम या अन्य फलियाँ.
मसाले या दाल के तड़के में भी बहुत कम मात्रा में प्याज़ डाला
जाता है. और अगर अभाव हो तो बहुत आसानी से विकल्पों का उपयोग देश कि विभिन्न प्रदेशों में होता रहा है.
मज़ेदार बात तो यह है कि कुछ स्वादिष्ट माँसाहारी व्यंजन भी
मज़े के लिए प्याज़ पर निर्भर नहीँ.
विभाजन के बाद पंजाबी शरणार्थी ज़ायक़े का प्रभुत्व स्थापित
करने वाले ढाबों की मेहरबानी से ही उत्तर भारत के शहरों और
क़स्बों में प्याज़ का चलन बेहिसाब बढ़ा है.
वरना राजस्थानी क़ादे की सब्ज़ी से इतर प्याज़ की अकेली छटा कहीं और नहीं देखने को मिलती.
प्याज़ की उपयोगिता संगत देने वाले साज़िंदे सरीखी रही है-
सजावटी लच्छों और सिक्के में डूबे अचारी प्याज़ जैसी.