कांग्रेस को कैंसर कहने वाले बाल ठाकरे
की मृत्यु पर कांग्रेसी जार-जार रोए।
ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस के कैंसर
का पता लगाने वाले वह अकेले विशेषज्ञ
थे। इस दुनिया से उनके चले जाने के बाद
कांग्रेस के कैंसर का इलाज करने
वाला कोई नहीं रहा। शायद इसीलिए
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने
कहा कि लोग हमेशा बाल ठाकरे को उनके
शानदार व्यक्तित्व के लिए याद करेंगे।
लोग याद करें या न करें, कांग्रसी जरूर
याद करेंगे क्योंकि वह देश से
ज्यादा कांग्रेस की जरूरत थे। इस बात
का इल्म 70 के दशक के महाराष्ट्र के
कांग्रेसी नेता वसंतराव नाइक को सबसे
ज्यादा था, जिन्होंने शिवसेना का सबसे
ज्यादा पालन-पोषण किया। शायद
इसीलिए राष्ट्रपति महोदय प्रणव
मुखर्जी को लगता है कि बाल ठाकरे के
रूप में देश ने आम आदमी के लिए काम करने
वाला नेता खो दिया। यह और बात है
कि उनके निधन के बाद मुंबई
सीएसटी स्टेशन पर शिव सैनिकों के
उपद्रव की आशंका से उत्तर भारतीयों में
दहशत फैल गई। दहशत
का ऐसा ही माहौल आतंकवादी कसाब के
आने पर था। शायद इसीलिए महाराष्ट्र
के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण
को कहना पड़ा कि रविवार को मुंबई के
लोग अपने घरों में ही रहें।
मालूम हो कि मैगजीन 'मार्मिक' के
माध्यम से बाल ठाकरे ने मुंबई में
गुजरातियों, मारवाड़ियों और दक्षिण
भारतीयों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ
मुहिम चलाई। सन् 1990 में लिट्टे
का खुला समर्थन किया और यह खुलेआम
कहा कि मैं हिटलर का बहुत बड़ा प्रशंसक
हूं। मुझमें और हिटलर में काफी समानताएं
हैं। बाल ठाकरे ने मुस्लिम हिंसा के
खिलाफ लड़ने के लिए हिंदुओं
का आत्मघाती दस्ता बनाने की जरूरत
महसूस की। ‘एक बिहारी, सौ बीमारी’
का नारा दिया। सचिन को धमकाते हुए
कहा कि अगर मराठी मानुष के खिलाफ
बल्ला घुमाया, तो हम बर्दाश्त
नहीं करेंगे।
असल में, तानाशाहों में
सहनशीलता होती ही नहीं है। फिर
भी देश में यह कैसा नजारा है कि उनके
निधन पर सबने आंसू बहाए। आंसू
सियासी थे या घड़ियाली? यह
तो जिन्होंने बहाए, वही बताएंगे।
सचिन को उनके निधन से
लगा कि महाराष्ट्र के लिए
उनका योगदान अतुलनीय है। शायद
इसीलिए देश में सबसे
ज्यादा आत्महत्या महाराष्ट्र के
ही किसान कर रहे हैं। छद्म
मराठी मानुष व छद्म हिंदुत्व के इर्द-
गिर्द बुनी गई थी ठाकरे
की विचारधारा।
उनकी जो विचारधारा थी, वह कभी मेरे
गले नहीं उतरी।
उनके निधन पर
उनकी आत्मा की शांति की कामना मैं
भी करता हूं। हांलाकि उन्होंने अपने
जीवनकाल में शांति कायम करने का काम
कभी नहीं किया। हमेशा अशांति फैलाने
की राजनीति की। शायद देश के
शांतिप्रिय नेताओं को इसकी जरूरत थी।
कांग्रेस हो या बीजेपी,
दोनों को उनकी जरूरत थी।
मोदी का विरोध करने वाले ठाकरे के
निधन पर मोदी भी रोए। लोकसभा में
विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने शोक
संदेश में कहा कि महाराष्ट्र के शेर
की मृत्यु की खबर सुनकर वह दुख से भर
गईं। शायद उन्हें याद आ
गया होगा कि मुंबई टेरर अटैक के समय
मुंबई को महाराष्ट्र के इसी शेर ने
बचाया था। तभी तो नरेंद्र मोदी ने
भी कहा कि जिन्दादिल बाला साहेब
साहस और वीरता का निचोड़ थे।
उनकी और उनके शिव सैनिकों के साहस और
वीरता को देश ने मुंबई हमले के दौरान
देखा था। अपना कपड़ा फड़वा कर
महानायक अमिताभ बच्चन भी खूब रोए
और उन्होंने कहा कि हमें छोड़कर
चली गई, लो दिन की मौन
संगिनी साया .....। अब महानायक से
कौन पूछे कि शुभ की या मनहूस दिन की ?
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और
भागलपुर के सांसद शाहनबाज हुसैन ने
कहा कि उनके निधन से एक युग का अंत
हो गया है । यह खबर पढ़ने के बाद मुंबई
से शिवसैनिकों से पिटकर आए एक
बिहारी छात्र ने कहा कि किस युग
का अंत हो गया है? नफरत के युग
का या प्रेम और सदभाव के युग का?
बाल ठाकरे नहीं रहे। मगर कुछ सवाल
जरूर रह गए। क्या भारत जैसे
उदारवादी देश को बाल ठाकरे जैसे
कट्टरपंथी नेताओं की जरूरत है? हकीकत
यह है कि हमारे मुल्क से ज्यादा देश में
छद्म सेक्युलरवादी और छद्म
हिंदूवादी को उनकी जरूरत है। शायद
इसीलिए देश से ज्यादा उनके
दलों को उल्लेखनीय लाभ और योगदान में
उनकी भूमिका को देखते हुए सभी दल वाले
आंसू बहाने उनके निधन पर पहुंचे।
जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी।
जीवन आंसू। आंसू भरी है ये जीवन की राहें
और उन्हीं राहों पर है राज और उद्धव
की निगाहें। आगे-आगे देखिए, होता है
क्या? उनके निधन के बाद महाराष्ट्र
की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा?
कांग्रेस कितना फायदा उठाएगी और
बीजेपी को कितना लाभ होगा। देश और
देशवासियों की किस्मत में तो अशुभ
ही अशुभ है। शुभ-लाभ और लाभ-शुभ सिर्फ
नेताओं का है। बाल ठाकरे
की राजनीति की सफलता का एक
ही सूत्र रहा है कि मुंबई में जो उनके साथ
हैं, वे सुरक्षित हैं। वरना उनकी खैर
नहीं।
साठ के दशक की फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ से
लेकर ‘माई नेम इज खान’ तक देश ने
शिवसैनिकों के उपद्रव
का नजारा देखा है। साठ के दशक में
ही दिलीप कुमार ने बाल ठाकरे
को राष्ट्रीय एकता के लिए
खतरा बताया था और फिर मुंबई में चल
रही ‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म का उग्र
विरोध आरंभ हो गया था। यह
सिलसिला ‘माई नेम इज खान’ तक
जारी रहा। अलबत्ता दाऊद इब्राहिम
के समधी और पाकिस्तान के क्रिकेटर
जावेद मियांदाद का बाल ठाकरे ने
मातोश्री में गर्मजोशी से स्वागत-
सत्कार किया। यह है बाल ठाकरे
की राजनीति। इसी को कांग्रेस सरकार
ने राजकीय सम्मान से सम्मानित कर
अंतिम विदाई दी।
ऐसी राजनीति की जरूरत कांग्रेस और
बीजेपी दोनों को है। लोगों में
असुरक्षा का भाव पैदा करके
राजनीति चमकाने का अचूक सूत्र।
ऐसी राजनीति की देश को जरूरत है
या बीजेपी और कांग्रेस को? बेशक
बीजेपी-कांग्रेस को। इसलिए जरूरत है,
जरूरत है- राज ठाकरे की। उद्धव ठाकरे
की। पाठकों, आपको देश प्यारा है
या ऐसी राजनीति करने
वालीं पार्टियां?
-सोर्स nbt
अशांति फैलाने वाले की आत्मा को शान्ति मिले!?