बिहार दिवस: बिहार जागे देश आगे! ~ Shamsher ALI Siddiquee

Shamsher ALI Siddiquee

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बिहार दिवस: बिहार जागे देश आगे!

    


आज बिहार को अलग हुए पुरे १०४ साल हो गए हैं
आजादी का जश्न सब पर चढ़ कर बोल रहा हैं। लोग
ऐसे प्रतिक्रिया कर रहे हैं जैसे हम कभी गुलाम ही ना
हो। सुशासन का असर हरेक गली चौराहे पर दिख रहा
हैं। लोग जश्ने आज़ादी में झूम रहे हैं। पटना की गलियाँ
सोनू निगम के पोस्टरों से सराबोर हैं। होली का रंग
भी कही ना कहीं इस आवेश में दब गया लगता हैं।
लोग उत्साहित हैं और जोश में भी, लेकिन इन जोश
और खरोश में हम बिहार के विभाजन का सही अर्थ
को नहीं समझ पाए हैं। ये आलेख शायद आपको
इतिहास के उस पन्नो से रूबरू करा सके जिसकी
आपको तलाश हैं - अली

वैसे तो बिहार की प्रशासनिक पहचान का अंत
होना 1765 में ही शुरू हो गया था जब ईस्ट इंडिया
कम्पनी को इसकी दीवानी मिली थी। उसके बाद
यह महज एक भौगोलिक इकाई बन गया, अगले सौ
सवा सौ सालों में बिहारी एक सांस्कृतिक पहचान
के रूप में तो रही लेकिन इसकी बिहार का प्रांतीय
या प्रशासनिक पहचान मिट सा गया। बिहार का
इतिहास संभवतः सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता
है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही
बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं, डा. सिन्हा जब
वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे तब उनसे एक
पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप
किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब
बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील
आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम
का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि
बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा.
सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा।
यह घटना फरवरी, 1893 की बात है। उसके बाद एक से
एक ऐसे हादसे होते गए जिसने बिहारी अस्मिता को
झंकझोर कर रख दिया , एक समय ऐसा भी आया जब
बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’
का बिल्ला लटकाए बिहार की जमीन पर काम
करना पड़ता था। उस समय बिहार की आवाज बुलंद
करने के लिए चंद ही लोग थे, जिनमे महेश नारायण,
अनुग्रह नारायण सिंह, नंदकिशोर लाल, राय बहादुर
और कृष्ण सहाय आदि प्रमुख थे। ना कोई अखबार था
ना कोई पत्रकार बिहार से प्रकशित एक मात्र
अखबार 'द बिहार हेराल्ड' था जो बिहारियों के
हित के लिए बात करता था। तमाम बंगाली अखबार
बिहार पृथक्करण का विरोध करते थे, कुछ बिहारी
पत्रकार बिहार हित की बात तो करते थे लेकिन
अलग बिहार के मुद्दे पर एकदम अलग राय रखते थे।
बिहार को अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने
या कहें की माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डॉ.
सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार
टाइम्स’ अंग्रेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू
किया। स्थितियां बदलते देख बाद में ‘बिहार
क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आन्दोलन
का समर्थन करने लगा। 1907 में महेश नारायण की
मृत्यु के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए। इसके बावजूद
उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। और 1911 में
अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय
विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए
उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश
सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट
गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। धीरे धीरे
उनकी मुहीम रंग लाइ और 22 मार्च 1911 को बिहार
बंगाल से अलग हो स्वतंत्र राज्य हो गया।
1911 में बिहार के बंगाल से अलग होने के एक सौ एक
बरस होने वाले हैं. आज भी इतिहास के इस मोड का
बिहार की ओर से इतिहास के इस पहलु को दिखाने
का अभाव है। क्या कारण था कि बिहार को
बंगाल से अलग लेने का निर्णय ब्रिटिश सरकार ने
लिया ... इस प्रश्न का एक उत्तर यह दिया जाता है
कि ब्रिटिश सरकार बंगाल के टुकडे करके उभरते हुए
राष्ट्रवाद को कमजोर करना चाहती थी। पहले उसने
बंग-विभाजन के द्वारा ऐसा करने की कोशिश की
और फिर बाद में बंगाल से बिहार और उडीसा को
अलग करके यही दोहराया। वैसे बंग विभाजन का जो
विरोध बंगाल ने किया उतना विरोध बिहार
विभाजन के समय नहीं हुआ, यह लगभग स्वाभाविक
था क्योंकि बिहार को पृथक राज्य बनाने के लिए
हुए आन्दोलन के पीछे सच्चिदानंद सिन्हा एवं महेश
नाराय़ण समेत अन्य आधुनिक बुद्धिजीवियों के नेतृत्व
में इसका शंखनाद हुआ था।
"बिहार बिहारियों के लिए" का विचार सर्वप्रथम
मुंगेर के एक उर्दू अखबार मुर्घ -इ- सुलेमान ने पेश किया
था.एक अन्य पत्र कासिद ने भी इसी तरह के वक्तव्य
प्रकाशित किए. इसी दशक में बिहार के प्रथम
हिन्दी पत्र- बिहार बन्धु जिसके संपादक केशवराम
भट्ट थे ने भी इस तरह के विचार को आगे बढाया. तब
से लेकर 1994 तक विविध रूपों में यह विचार व्यक्त
होता रहा जिसका ही एक प्रतिफलन बिहार का
बंगाली विरोधी आन्दोलन था जो बिहार के
प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में बंगालियों के
वर्चस्व के विरोध के रूप में उभरा. एल. एस. एस ओ मैली
से लेकर वी सी पी चौधरी तक विद्वानों ने बिहार
के बंगाल के अंग के रूप में रहने के कारण बढे पिछडेपन
की चर्चा की है. इस चर्चा का एक सुंदर समाहार
गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया
है. इन चर्चाओं में यह कहा गया है कि अंग्रेज़ बिहार
के प्रति लापरवाह थे और बिहार लगातार उद्योग
धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय और सामाजिक क्षेत्र
में पिछडता जा रहा था। चूँकि बिहार में बर्धमान के
राजा या कासिमबाजार के जमींदार की तरह के
बडे जमींदार नहीं थे यहाँ के एलिट भी उपेक्षित ही
रहे. दरभंगा महाराज को छोडकर बिहार के किसी
बडे जमींदार को अंग्रेज महत्त्व नहीं देते थे। जिस
क्षेत्र में विदेशियों के साथ व्यापार का इतना
महत्त्वपूर्ण सम्पर्क था उसका बंगाल के अंग के रूप में
रहकर जो हाल हो गया था उससे यह निष्कर्ष
निकालना स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल
के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना असंभव था।
बिहार को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग कर एक अलग
राज्य का निर्माण 1870 से ही शुरू हो गया था जब
बिहार के पढ़े लिखे लोगों को ये समझ में आना शुरू
हो गया की स्कूल, कॉलेज से लेकर अदालत और
किसी भी सरकारी दफ्तरों की नौकरियों में
बंगालियों का वर्चस्व अनैतिक है और जनतंत्र के
खिलाफ भी। बिहार के प्रथम समाचार पत्र बिहार
बन्धु में इस आशय के पत्र और लेख प्रकाशित हुए जिसमें
यहाँ तक कहा गया कि बंगाली ठीक उसी तरह
बिहारियों की नौकरियाँ खा रहे हैं जैसे कीडे खेत में
घुसकर फसल नष्ट करते हैं! सरकारी मत इससे अलग था
उनके अनुसार बंगाली; बिहारियों की नौकरियों पर
बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं।
1872 में , बिहार के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर
जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा था कि चूंकि बिहार का
शासन बंगाल से बंगाली अधिकारियों द्वारा
नियंत्रित किया जाता है, इसलिए हर मामले में
अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में
बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी
रहती है। सरकारी द्स्तावेज़ों और अंग्रेज़ों द्वारा
लिखित समाचार पत्रों के लेखों में भी यही भाव
ध्वनित होता था. यह बात खास तौर पर कही
जाती थी कि शिक्षित बंगाली रेल की पटरियों के
साथ साथ पंजाब तक नौकरियाँ पाते गये। कलकत्ता
से प्रकशित एक पत्र के सम्पादकीय में इस बात का
विश्लेषण खास तौर किया गया गया लिखा गया
की बिहार के लगभग सभी सरकारी नौकरियाँ
बंगाली के हाथों में हैं. बडी नौकरियाँ तो हैं ही
छोटी नौकरियों पर भी बंगाली ही हैं। जिलेवार
विश्लेषण करके पत्र में लिखा गया कि भागलपुर,
दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर, सारन, शाहाबाद और
चम्पारन जिलों के कुल 25 डिप्टी मजिस्ट्रेटों और
कलक्टरों में से 20 बंगाली हैं. कमिश्नर के दो सहायक
भी बंगाली हैं. पटना के 7 मुंसिफों ( भारतीय जजों)
में से 6 बंगाली हैं. और यही स्थिति सारन की भी है
जहां 3 में से 2 बंगाली हैं। छोटे सरकारी नौकरियों
में भी यही स्थिति है। मजिस्ट्रेट , कलक्टर, न्यायिक
दफ्तरों में 90 प्रतिशत क्लर्क बंगाली हैं। यह स्थिति
सिर्फ जिले के मुख्यालय में ही नहीं हैं, सब-डिवीजन
स्तर पर भी यही स्थिति है. म्यूनिसिपैलिटी और
ट्रेजेरी दफ्तरों में बंगाली छाए हुए हैं। इस प्रकार के
आँकडे देने के बाद पत्र ने अन्य प्रकार की नौकरियों
का हवाला दिया था. पत्र के अनुसार दस में से नौ
डॉक्टर और सहायक सर्जन बंगाली हैं. पटना में आठ
गज़ेटेड मेडिकल अफसर बंगाली हैं. सभी भारतीय
इंजीनियर के रूप में कार्यरत बंगाली हैं. एकाउंटेंट,
ओवरसियर एवं क्लर्कों में से 75 प्रतिशत बंगाली ही
हैं. संपादकीय का सबसे दिलचस्प हिस्सा वह था
जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि जिस दफ्तर में
बिहारी शिक्षित व्यक्ति कार्यरत है उसको पग पग
पर बंगाली क्लर्कों से जूझना पडता हैं और उनकी
मामूली भूलों को भी सीनियर अधिकारियों के
पास शिकायत के रूप में दर्ज कर दिया जाता हैं।
सम्पादकीय का निष्कर्ष था कि बिहार की
नौकरियों को बंगाली आकांक्षाओं की सेवा में
लगा दिया गया है।
बंगालियों के बिहार में आने के पहले नौकरियों में
कुलीन मुसलमानों और कायस्थों का कब्ज़ा था।
स्वाभाविक था कि बंगालियों के खिलाफ सबसे
मुखर मुसलमान और कायस्थ ही थे। यहीं से 'बिहार
बिहारियों के लिए' का नारा उठा, पहले कुलीन
मुसलमानों ने इसे मुद्दा बनाया और बाद में कायस्थों
ने। अंग्रेज़ी शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने बहुत कम
तरक्की की थी, सबकुछ कलकत्ता से ही तय होता
था इसलिए बिहार में कॉलेज भी कम ही खोले गये.
यह बहुत प्रचारित नहीं है कि जब कॉलेज खोलने का
निर्णय किया गया तो ब्रिटिश कम्पनी सरकार ने
तय किया था कि बंगाल प्रेसिडेंसी में दो कॉलेज
खोले जाएं- एक अंग्रेजी शिक्षा के लिए कलकत्ता में
और एक संस्कृत शिक्षा के लिए तिरहुत अंचल में
क्योंकि पारम्परिक संस्कृत शिक्षा केन्द्र के रूप में
तिरहुत प्रसिद्ध था। यह बंगाल के प्रसिद्ध
भारतियों को पसंद नहीं आया और प्रयत्न करके
संस्कृत कॉलेज भी कलकत्ता में ही खोला गया।
बिहार में बडे कॉलेज के रूप में पटना कॉलेज था
जिसकी स्थापना 1862-63 में की गयी थी. इस
कॉलेज में बंगाली वर्चस्व इतना अधिक था कि 1872
में जॉर्ज कैम्पबेल ने यह निर्णय लिया कि इसे बंद कर
दिया जाए। वे इस बात से क्षुब्ध थे कि 16 मार्च
1872 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत
समारोह में उपस्थित 'बिहार' के सभी छात्र बंगाली
थे! यह सरकारी रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि
"हम बिहार में कॉलेज सिर्फ प्रवासी बंगाली की
शिक्षा के लिए खुला नहीं रखना चाहते". इस
निर्णय का विरोध बिहार के बडे लोगों ने किया.
इन लोगों का कथन था कि इस कॉलेज को बन्द न
किया जाए क्योंकि बिहार में यह एकमात्र शिक्षा
केन्द्र था जहाँ बिहार के छात्र डिग्री की पढाई
कर सकते थे।
बिहार की सरकारी नौकरियों में बंगाली वर्चस्व पर
कई सरकारी रिपोर्टों में प्रमुखता से लिखा गया।
यहाँ तक की एक रिपोर्ट ऐसी भी थी जिसमे ये
कहा गया की बिहारी ;बंगाली के रहमोकरम पर हैं
जो नौकरी वो नहीं करना चाहते वो बिहारियों
को मिल जाती हैं। इस रिपोर्ट ने तहलका मचा
दिया अंतत: सरकार जगी और सरकारी आदेश दिए गए
कि जहाँ-जहाँ रिक्त स्थान हैं उनमें उन बिहारियों
को ही नौकरी पर रखा जाए जिन्हें शिक्षा का
सुयोग मिला है। आदेश में कई जगहों पर यह स्पष्ट कहा
जाता था कि इसे बंगालियों को नहीं दिया जाए।
इसी तरह के कुछ आदेश उत्तर पश्चिम प्रांत में भी दिए
गये थे. इस तरह के सरकारी विज्ञापन भी समाचार
पत्रों में छपा करते थे जिसमें स्पष्ट लिखा होता
था- "बंगाली बाबु आवेदन न करें". बिहार में भी 1870
और 1880 के दशक में कई सरकारी आदेश दिए गये थे
जिसमें यह कहा गया था कि बिहारियों को ही
इन नौकरियों में नियुक्त किया जाए।
बिहार के कई समाचार पत्रों में इस आशय के कई लेख
और पत्र प्रकाशित होते रहे जिसमें यह कहा जाता
था कि बिहार की प्रगति में बडी बाधा बंगालियों
का वर्चस्व है. नौकरियों में तो बंगाली अपने अंग्रेज़ी
ज्ञान के कारण बाजी मार ही लेते थे बहुत सारी
जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में थी।
इसमें संदेह नहीं कि बंगालियों के प्रति सरकारी
विद्वेष के पीछे सिर्फ स्थानीय लोगों के प्रति
उनका लगाव नहीं था. विभिन्न कारणों से बंगाल में
चल रही गतिविधियों से जुडने के कारण बिहार में
भी बंगाली समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से
सजग था. उनके प्रभाव से शांत समझा जाने वाला
प्रदेश बिहार भी अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रवादी
आन्दोलन से जुडने लगा था. कई इतिहासकारों का
मत है कि बंगालियों के प्रति बिहारियों के मन में
विद्वेष को बढाने में सरकार की एक चाल थी. वे
नहीं चाहते थे कि राष्ट्रीय और क्रांतिकारी
विचारों का जोर बिहार में बढे.
इसमें संदेह नहीं कि बिहार में बंगाली नवजागरण का
प्रभाव पडा था और बिहार के बंगाली राजनैतिक
और बौद्धिक क्षेत्र में आगे बढे हुए थे. शैक्षणिक,
स्वास्थ्य, सार्वजनिक संगठन तथा समाज सुधार के
क्षेत्र में बंगाली समाज बिहार में बहुत सक्रिय था.
यह नहीं भूला जा सकता कि भूदेव मुखर्जी जैसे
बंगाली बुद्धिजीवी-अधिकारी के कारण ही
हिन्दी को बिहार में प्रशासन और शिक्षा के
माध्यम के रूप में स्वीकृति मिल सकी। बिहार में प्रेस
के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका प्रदान करने वाले
दो महापुरूषों- केशवराम भट्ट और रामदीन सिंह को
आज बिहार के पत्रकार भुला ही चुके हैं। इन सबके
बावजूद यह मानना ही पडेगा कि बिहार के बहुत
सारे शिक्षित लोगों को यह लगता था कि बंगाल
के साथ होने के कारण और प्रशासन का कलकत्ता से
नियंत्रण होने के कारण बिहारियों के प्रति सरकार
पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाती। और यही एक खास
वजह थी जिसने बिहार को अलग करने में खास
भूमिका निभाई।
बंगाल से बिहार के अलग होने की प्रशासनिक
भूमिका के दशकों पहले से बिहार के पढ़े-लिखो के
बीच बंगाली वर्चस्व के विरूद्ध भाव सक्रिय होने लगे
थे. इस भाव का एक प्रकाशन अल- पंच में 1889 में
प्रकाशित नज़्म में मिला था जिसका शीर्षक था-
'सावधान ! ये बंगाली है". ऐसे ही भाव की एक और
प्रस्तुति 1880 में 'बिहार के एक शुभ-चिंतक' का पत्र
है जिसमें बंगालियों की तुलना दीमकों से की गई है
जो बिहार की फसल (नौकरियों) को 'खा रहे हैं'.
बुद्धिजीवियों के बीच बंगाली वर्चस्व के प्रति इस
भाव के कारण ही इस बात के लिए समर्थन पैदा होने
लगा कि बंगाल के साथ रहकर बिहारियों की
स्वार्थ -रक्षा संभव नहीं हैं।
1890 के दशक में बिहार की पत्र पत्रिकाओं में
(खासकर बिहार टाइम्स में ) इस आशय के लेख
नियमित रूप से छपने लगे जिसमें बिहार की दयनीय
स्थिति के प्रति सचेतनता और परिस्थिति के प्रति
आक्रोश व्यक्त किया गया था। बिहार टाइम्स ने
लिखा था कि बिहार की आबादी 2 करोड 90
लाख है और जो पूरे बंगाल को एक तिहाई राजस्व देते
हैं उसके प्रति यह व्यवहार अनुचित है। इस पत्र ने
विभिन्न क्षेत्रों में बिहारियों के प्रतिनिधित्व
को लेकर जो तथ्य सामने रखे उसे ध्यान में रखने पर
बंगाल में बिहार की उपेक्षा की सच्चाई को
नकारा नहीं जा सकता। ऐसे अनेक कारण थे जो
बिहार के क्षेत्र में बिहारियों की उपेक्षा को
दिखाते थे जैसे - बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103
अधिकारियों में से सिर्फ 3 बिहारी थे, मेडिकल एवं
इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ
बंगाली ही पाते थे, कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित
3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से
आता था, बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11
सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-
कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था
(जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) ,
1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और
मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।
ऐसे हालात में बिहारी प्रबुद्धों द्वारा बिहार को
पृथक राज्य बनाए जाने का समर्थन दिया जाने लगा
और स्वदेशी आन्दोलन के उपरांत हालात ऐसे हो गये
कि कांग्रेस के 1908 के अपने प्रांतीय अधिवेशन में
बिहार को अलग प्रांत बनाए जाने का समर्थन
किया गया। कुछ प्रमुख मुस्लिम नेतागण भी सामने
आये जिन्होंने हिन्दू मुसलमान के मुद्दे को पृथक राज्य
बनने में बाधा नहीं बनने दिया। इन दोनों बातों से
अंग्रेज शासन के लिए बिहार को अलग राज्य का
दर्जा दिए जाने का मार्ग सुगम हो गया। अंतत: वह
घडी आयी और 12 दिसंबर 1911 को बिहार को अलग
राज्य का दर्जा मिल गया और आखिरकार 145 बर्ष
बाद बिहार को उसका सम्मान प्राप्त हो गया।
बिहार के इतिहास में 12 दिसंबर 1911 का दिन मील
का पत्थर साबित हुआ। इसी दिन ब्रिटिश सरकार ने
भारत की राजधानी कलकत्ता से स्थानांतरित कर
दिल्ली ले जाने की घोषणा की। बिहार को बंगाल
से अलग कर गर्वनर इन काउंसिल के शासन वाला
राज्य घोषित कर दिया। इसके बाद 22 मार्च 1912
को की गयी उद्घोषणा के द्वारा बंगाल से अलग कर
बिहार को नए राज्य का दर्ज मिला । जिसमें
भागलपुर, मुंगेर, पूर्णिया एवं भागलपुर प्रमंडल के
संथाल परगना के साथ-साथ पटना, तिरहुत, एवं
छोटानागपुर को शामिल किया गया। सर चाल्र्स
स्टूबर्स बेले, के.सी.एस.आई. राज्य के प्रथम राज्यपाल
तथा उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। 29 दिसंबर 1920
को बिहार राज्य को राज्यपाल वाला प्रांत बनने
का गौरव प्राप्त हुआ। महामहिम रायपुर वासी
सत्येन्द्र प्रसन्नो सिन्हा राज्य के प्रथम भारतीय
राज्यपाल नियुक्त किए गए। मार्च 1920 में
लेजिस्लेटिव काउंसिल भवन की स्थापना की गयी।
सात फरवरी 1921 को सर मुडी की अध्यक्षता में
प्रथम बैठक आयोजित की गयी जो आज बिहार
विधानसभा कहलाता है। बिहार के अंतिम
राज्यपाल सर जेम्स डेविड सिफटॉन हुए। वर्ष 1935 में
बिहार विधान परिषद भवन का निर्माण शुरू किया
गया। गर्वमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 में निहित
प्रावधानों के अनुसार एक अप्रैल 1937 को प्रांतीय
स्वायत्ता का श्रीगणोश हुआ। जिसके तहत
द्विसदनीय व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके तहत
बिहार विधानसभा व विधान परिषद प्रस्थापित
किया गया। इसके तहत 22-29 जनवरी 1937 की
अवधि में बिहार विधानसभा का चुनाव संपन्न हुआ।
20 जुलाई 1937 को डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में
प्रथम सरकार का गठन हुआ। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में
चुना गया। 22 जुलाई 1937 को विधानमंडल का
प्रथम अधिवेशन हुआ। स्वाधीनता के बाद 15 अगस्त
1947 को श्री जयरामदास दौलत राम प्रथम
राज्यपाल नियुक्त किए गए। पुन: बिहार
विधानसभा के चुनाव के बाद 29 अप्रैल 1952 को
श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए।
यहाँ एक रोचक तथ्य बतलाना चाहूँगा की
"बंगाल से अलग होने के बाद जब पटना को बिहार
की राजधानी बनाने का फैसला लिया गया,
तो इस शहर में आधारभूत संरचनाओं का घोर
अभाव था। इसे तैयार करने में समय लगता, जबकि
सरकार पटना से चलना था। ऐसे में दरभंगा के
महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना के छज्जू बाग
को खरीदा और वहां अस्थायी तौर पर
विधानसभा और सचिवालय का निर्माण
कराया। उस वक्त अगर ऐसा नहीं किया जाता
तो बिहार-उडीसा की संयुक्त राजधानी पटना
की जगह कटक बन सकता था। उस अस्थाई भवन में
विधानसभा तक तक चला जब तक नया भवन
तैयार नहीं हो गया। उस अस्थाई विधानसभा
भवन में आज पटना उच्च न्यायालय के प्रधान
न्यायधीश का आवास है।" आज जब बिहार बदल
रहा हैं और बिहारी भी तो दुख की बात यह है
कि बिहार की राजधानी पटना बनाने में अहम
भूमिका निभानेवाले रामेश्वर सिंह को सौ
साल गुजर जाने के बाद भी न तो बिहार याद
करता है और न ही राजधानी पटना।
बिहार अलग हुआ और अपने आप पर इतराता चाणक्य
के कदमो पर चलता दिन-दुनी रात तरक्की करने लगा।
इस बीच बहुत से उतार चढ़ाव आये। कई राजनीती
समीकरण बदले, कई बार इमरजेंसी हुई। जगन्नाथ और
लालू ने मिलकर कई बार राज्य का बलात्कार
किया। राज्य कई बार गर्त में गिरा और कई बार
बुलंदी को छुआ। लालू राज के बुरे साल को झेलने के
बाद नितीश का सुशासन भी बिहार ने देखा।
बिहार हमेशा से एक ऐसे प्रदेश के रूप में पहचाना जा
रहा हैं जो अपने आप को बदलने की बजाय देश और
दुनिया को बदलने में तल्लीन रहता हैं। आज जब
बिहार बदल रहा हैं, बिहार और बिहारी के बारे में
सोच रहा हैं, कृषि से ज्यादा उधोग धंधे के बारे में
सोच रहा हैं, चाणक्य को छोड़कर चार्वाक के बारे
में सोचने लगा हैं, बिहारी संस्कृति को भुलाकर
पश्चिमी रंग में रंगने लगा हैं उस समय बस एक ही टीस
दिल में उठती हैं ... क्या सचमुच ये वही नालंदा
विश्वविद्यालय वाला बिहार हैं जिसने आज बिहार
को शिक्षा मित्र के चुंगल में धकेल दिया हैं।

रेफरेंस -:
द जर्नल आफ बिहार रिसर्च सोसाइटी