
इस्लाम धर्म के सबी मुसलमान इस बात पर सहमत हैं के कर्बला के महान बलिदान ने इस्लाम धर्म को विलुप्त होने से बचा लिया ! हालांकि, कुछ मुसलमान इस्लाम की इस व्याख्या से असहमत हैं और कहते हैं की इस्लाम में कलमा के "ला इलाहा ईल-लल्लाह" के सिवा कुछ नहीं है! मुसलमान का कुछ गिरोह हजरत मुहम्मद को भी कलमा के एक अनिवार्य अंग मानते हुए कलमा में "मुहम्मद अर रसूल-अल्लाह" को भी पहचाना है! इस्लाम धर्म के मुख्य स्तम्भ (तौहीद, अदल, नबूअत और कियामत) में तो सभी विश्वास रखते हैं परंतू यह समूह पैगम्बर (स अ ) द्वारा बताये, सिखाये और दिखाए[1] हुए “इमामत” को ना तो पहचानता ही है और ना ही इसको कलमा का एक अभिन्न अंग मानता है!
मुसलमानों के केवल एक छोटे तबके ने इमामत को पहचाना और यह विश्वास करते हैं की इमामत के प्रत्येक सदस्य अल्लाह के प्रतिनीधि और नियुक्ती हैं! यह अल्लाह के ज्ञान में था कुछ मुसलमान हजरत अली (अस) को "अमीर उल मोमनीन" के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे! इसलिए अल्लाह ने इन लोगों का परीक्षण करने के लिए और अपनी स्वीकृति पर लोगों को विलाए-अली (अस) की स्वीकृति/अस्वीकृति के अनुसार इनाम / सज़ा देने का फैसला किया था ! अल्लाह ने इनके अस्वीकृति के फलसवरूप हजरत मुहम्मद द्वारा यह घोषणा कर दी के इनके (हजरत अली (अस) के ) बिना कोई भी कर्म या पूजा के कृत्यों इनके लिए नहीं जमा किये जायेंगे और ना ही अल्लाह इनके धर्मो कर्मो को स्वीकार करेगा! इसी कारण हजरत मुहम्मद (स अ व ), उनकी पुत्री हजरत फातिमा ज़हरा (स:अ) ने सारी ज़िंदगी अल्लाह के इस फैसले को बचाने में निछावर कर दी! और इन्ही कारणों से उन्हें शहीद भी कर दिया गया!
जब इमाम हुसैन (अस) कुफा के रेगिस्तान से कर्बला की तरफ जा रहे थे तो किसी ने उनसे उनकी यात्रा का उद्देश्य पुछा! इमाम (अस) ने कहा, मै कर्बला, इस्लाम को पुनर्जीवित करने के लिए जा रहा हूँ और मै उन
हत्यारों को उजागर करने जा रहा हूँ जिसने मेरे नाना मुहम्मद मुस्तफा (स अ व ) , मेरी माँ फातिमा ज़हर (स:अ), मेरे भाई हजरत हसन (अस) को क़त्ल किया है और इस्लाम को नेस्त-ओ-नाबूद करने में कोई कसार नहीं छोड़ी है!
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम : इमाम हुसैन (अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब, यानि अबी तालिब के बेटे अली के बेटे अल हुसैन, 626-680 ) अली अ० के दूसरे बेटे और पैग़म्बर मुहम्मद के नाती थे! आपकी माता का नाम फ़ातिमा जाहरा था । आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे। आप शिया समुदाय के तीसरे इमाम हैं!
आपका जन्म 3 शाबान, सन 4 हिजरी, 8 जनवरी 626 ईस्वी को पवित्र शहर मदीना, सऊदी अरब) में हुआ था और आपकी शहादत 10 मुहर्रम 61 हिजरी (करबला, इराक) 10 अक्टूबर 680 ई. में वाके हुई!
आप के जन्म के बाद हज़रत पैगम्बर(स.) ने आपका नाम हुसैन रखा, आपके पहले "हुसैन" किसी का भी नाम नहीं था। आपके जनम के पश्चात हजरत जिब्रील (अस) ने अल्लाह के हुक्म से हजरत पैगम्बर (स) को यह सूचना भेजी के आप पर एक महान विपत्ति पड़ेगी, जिसे सुन कर हजरत पैगम्बर (स) रोने लगे थे और कहा था अल्लाह तेरी हत्या करने वाले पर लानत करे।
आपकी मुख्य अपाधियाँ निम्नलिखित हैं :
* मिस्बाहुल हुदा
* सैय्यिदुश शोहदा
* अबु अबदुल्लाह
* सफ़ीनातुन निजात
इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे। तथा इस समय सीमा में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था। पैगम्बर(स.) इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।
हज़रत पैगम्बर(स.) के स्वर्गवास के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तीस (30) वर्षों तक अपने पिता हज़रत इमामइमाम अली अलैहिस्सलाम के साथ रहे। और सम्स्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग करते रहे।
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे। तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे । जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गय, व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया।और इस्लामकी रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये।
हज़रत मुहम्मद (स.) साहब को अपने नातियों से बहुत प्यार था मुआविया ने अली अ० से खिलाफ़त के लिए लड़ाई लड़ी थी । अली के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफ़ा बनना था । मुआविया को ये बात पसन्द नहीं थी । वो हसन अ० से संघर्ष कर खिलाफ़त की गद्दी चाहता था । हसन अ० ने इस शर्त पर कि वो मुआविया की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, मुआविया को खिलाफ़त दे दी । लेकिन इतने पर भी मुआविया प्रसन्न नहीं रहा और अंततः उसने हसन को ज़हर पिलवाकर मार डाला । मुआविया से हुई संधि के मुताबिक, हसन के मरने बाद 10 साल (यानि 679 तक) तक उनके छोटे भाई हुसैन खलीफ़ा बनेंगे पर मुआविया को ये भी पसन्द नहीं आया । उसने हुसैन साहब को खिलाफ़त देने से मना कर दिया । इस दस साल की अवधि के आखिरी 6 महीने पहले मुआविया की मृत्यु हो गई । शर्त के मुताबिक मुआविया की कोई संतान खिलाफत की हकदार नहीं होगी, फ़िर भी उसका बेटा याज़िद प्रथम खलीफ़ा बन गया और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि, अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था। आप ने इसका विरोध किया, इस कुकर्मी शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए इमाम हुसैन (अस) को शहीद कर दिया गया, इसी कारण आपको इस्लाम में एक शहीद का दर्ज़ा प्राप्त है। आपकी शहादत के दिन को अशुरा (दसवाँ दिन) कहते हैं और इसकी याद में मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाते हैं ।
करबला की लडाई
करबला ईराक का एक प्रमुख शहर है । करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है! यह क्षेत्र सीरियाई मरुस्थल के कोने में स्थित है । करबला शिया स्मुदाय में मक्का के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है । कई मुसलमान अपने मक्का की यात्रा के बाद करबला भी जाते हैं । इस स्थान पर इमाम हुसैन का मक़बरा भी है जहाँ सुनहले रंग की गुम्बद बहुत आकर्षक है । इसे 1801 में कुछ अधर्मी लोगो ने नष्ट भी किया था पर फ़ारस (ईरान) के लोगों द्वारा यह फ़िर से बनाया गया ।
यहा पर इमाम हुसैन ने अपने नाना मुहम्मद स्० के सिधान्तो की रक्षा के लिए बहुत बड़ा बलिदान दिया था । इस स्थान पर आपको और आपके लगभग पूरे परिवार और अनुयायियों को यजिद नामक व्यक्ति के आदेश पर सन् 680 (हिजरी 58) में शहीद किया गया था जो उस समय शासन करता था और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि,अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था। ।
करबला की लडा़ई मानव इतिहास कि एक बहुत ही अजीब घटना है।
यह सिर्फ एक लडा़ई ही नही बल्कि जिन्दगी के सभी पहलुओ की मार्ग दर्शक भी है।
इस लडा़ई की बुनियाद तो ह० मुहम्मद मुस्त्फा़ स० के देहान्त के केतुरंत बाद रखी जा चुकी थी।
इमाम अली अ० का खलीफा बनना कुछ अधर्मी लोगो को पसंद नहीं था तो कई लडा़ईयाँ हुईं
अली अ० को शहीद कर दिया गया, तो उनके पश्चात इमाम हसन अ० खलीफा बने उनको भी शहीद कर दिया गया। यहाँ ये बताना आवश्यक है कि, इमाम हसन को किसने और क्यों शहीद किया?
असल मे अली अ० के समय मे सिफ्फीन नामक लडा़ई मे माविया ने मुँह की खाई वो खलीफा बनना चाहता था
पर न बनसका। वो सीरिया का गवर्नर पिछ्ले खलिफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बडी़ सेना
तैयार कर रहा था जो इस्लाम के नही वरन उसके अपने लिये थी, नही तो उस्मान के क्त्ल के वक्त खलिफा
कि मदद के लियेहुक्म के बावजूद क्यों नही भेजी गई? अब उसने वही सवाल इमाम हसन के सामने रखा
या तो युद्ध या फिर अधीनता। इमाम हसन ने अधीनता स्वीकार नही की परन्तु वो मुसलमानो का खून भी
नहीं बहाना चाहते थे इसकारण वो युद्ध से दूर रहे अब माविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन
से सन्धि करने पर मजबूर हो गया इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सिर्फ सत्ता सोंपी इन शर्तो मे से कुछ ये हैं: -
वो सिर्फ सत्ता के कामो तक सीमित रहेगा धर्म मे कोई हस्तक्षेप नही कर सकेगा।
वो अपने जीवन तक ही सत्ता मे रहेगा मरने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सकेगा।
उसके म्ररने के बाद इमाम हसन खलिफा़ होगे यदि इमाम हसन कि मृत्यु हो जाये तो इमाम हुसैन को खलिफा माना जायगा।
वो सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा।
इस प्रकार की शर्तो के द्वारा वो सिर्फ नाम मात्र का शासक रह गया, उसने अपने इस संधि को अधिक महत्व नहीं दिया इस कारण करब्ला नामक स्थान मे एक धर्म युध हुआ था जो मुहम्म्द स्० के नाती तथा अधर्मी यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या)के बीच हुआ जिसमे वास्त्व मे जीत इमाम हुसेन अ० की हुई पर जाहिरी जीत यजीद कि हुई क्योकि इमाम हुसेन अ० को व उन्के सभी साथीयो को शहीद कर दिया गया था उन्के सिर्फ् एक पुत्र अली अ० (जेनुलाबेदीन्)जो कि बिमारी के कारन युध मे भाग न ले सके थे बचे आज यजीद नाम इतना जहन से गिर चुका हे कोई मुसलमान् अपने बेटे का नाम यजीद नही रखता जबकी दुनिया मे ह्सन व हुसेन नामक अरबो मुस्ल्मान हे यजीद कि नस्लो का कुछ पता नही पर इमाम हुसेन कि औलादे जो सादात कहलाती हे जो इमाम जेनुलाबेदीन अ० से चली दुनिया भर मे फेले हे
इमाम हुसैन (अस) विरोध और उसका उद्देश्य
हज़रत इमाम हुसैन (अस) ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि
जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन (अस) मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली (अस) की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।
एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।
जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो, आपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।
एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।
इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं,
1. इस्लामी समाज में सुधार।
2. जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।
3. जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।
4. हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली (अस) की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।
5. समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।
6. अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो, जो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।
घटना 570 ई. की है, जब अरब की सरजमीं पर दरिंदगी अपनी चरम सीमा पर थी। तब ईश्वर ने एक संदेशवाहक (पैगम्बर) भेजा, जिसने अरब की जमीन को दरिंदगी से निजात दिलाई और निराकार ईश्वर (अल्लाह) का परिचय देने के बाद मनुष्यों को ईश्वर का संदेश पहुंचाया, जो अल्लाह का 'दीन' है। इसे इस्लाम का नाम दिया गया। 'दीन' केवल मुसलमानों के लिए नहीं आया, वह सभी के लिए था, क्योंकि बुनियादी रूप से दीन (इस्लाम) में अच्छे कामों का मार्गदर्शन किया गया है और बुरे कामों से बचने और रोकने के तरीके बताए गए हैं।
जब दीन (इस्लाम) को मोहम्मद साहब ने फैलाना शुरू किया, तब अरब के लगभग सभी कबीलों ने मोहम्मद की बात मानकर अल्लाह का दीन कबूल कर लिया। मोहम्मद के साथ मिले कबीलों की तादाद देखकर उस समय मोहम्मद के दुश्मन भी मोहम्मद साहब के साथ आ मिले (कुछ दिखावे में और कुछ डर से)। लेकिन वे मोहम्मद से दुश्मनी अपने दिलों में रखे रहे। मोहम्मद के आठ जून, 632 ई. को देहांत के बाद ये दुश्मन धीरे-धीरे हावी होने लगे। पहले दुश्मनों ने मोहम्मद की बेटी फातिमा जहरा के घर पर हमला किया, जिससे घर का दरवाजा टूटकर फातिमा जहरा पर गिरा और 28 अगस्त, 632 ई. को वह इस दुनिया से चली गईं।
फिर कई सलों बाद मौका मिलते ही दुश्मनों ने मस्जिद में नमाज (ईश्वर की उपासना) पढ़ते समय मोहम्मद के दामाद हजरत अली के सिर पर तलवार मार कर उन्हें शहीद कर दिया। उसके बाद दुश्मनों ने मोहम्मद के बड़े नाती इमाम हसन को जहर देकर शहीद किया। दुश्मन मोहम्मद के पूरे परिवार को खत्म करना चाहते थे, इसलिए उसके बाद मोहम्मद के छोटे नाती इमाम हुसैन पर दुश्मन दबाव बनाने लगे कि वह उस समय के जबरन बने खलीफा 'यजीद' (जो नाम मात्र का मुसलमान था) का हर हुक्म माने और 'यजीद' को खलीफा कबूल करें।
यजीद जो कहे उसे इस्लाम में शामिल करें और जो वह इस्लाम से हटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें। यानी मोहम्मद के बनाए हुए दीन 'इस्लाम' को बदल दें। इमाम हुसैन पर दबाव इसलिए था, क्योंकि वह मोहम्मद के चहेते नाती थे। इमाम हुसैन के बारे में मोहम्मद ने कहा था कि हुसैन-ओ-मिन्नी वा अना मिनल हुसैन' यानी हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से यानी जिसने हुसैन को दुख दिया उसने मुझे दुख दिया।
उस समय का बना हुआ खलीफा यजीद चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी हुसैन ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यजीद ने हुसैन को कत्ल करने की योजना बनाई। चार मई, 680 ई. में इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्के पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, फिर हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।
जब दुश्मनों की फौज ने हुसैन को घेरा था, उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी, इमाम ने दुश्मन की फौज को पानी पिलवाया। यह देखकर दुश्मन फौज के सरदार 'हजरत हुर्र' अपने परिवार के साथ हुसैन से आ मिले। इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाए, उस जमीन को पहले हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने खेमे लगाए। यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब इमाम हुसैन ने यजीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई।
तीन दिन गुजर जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन तीन दिन की प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाए, लेकिन अल्लाह का दीन 'इस्लाम', जो नाना (मोहम्मद) लेकर आए थे, वह बचा रहे।
10 अक्टूबर, 680 ई. को सुबह नमाज के समय से ही जंग छिड़ गई जंग तो कहना ठीक न होगा, क्योंकि एक ओर लाखों की फौज थी, दूसरी तरफ चंद परिवार और उनमें कुछ मर्द, लेकिन इतिहासकार जंग ही लिखते हैं। वैसे इमाम हुसैन के साथ केवल 75 या 80 मर्द थे, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 72 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उसे शहीद कर दिया।
इमाम हुसैन की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिए और परिवार की औरतों और बीमार मर्दों व बच्चों को बंधक बना लिया। जो लोग अजादारी (मोहर्रम) मनाते हैं, वह इमाम हुसैन की कुर्बानियों को ही याद करते हैं।
इमाम हुसैन (अस) के विरोध के परिणाम
बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन (अस) की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुई; कि हमने इमाम हुसैन (अस) की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।
इमाम हुसैन (अस) के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।