ऑनलाइन संसार यानी इंटरनेट के बारे में विशेष ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को साइबरनॉट भी कहा जाता है। लेकिन इंटरनॉट इंटरनेट की समस्त जानकारी रखने वालों को कहा जाता है और इंटरनॉट ऑनलाइन जगत से जुड़ा एक अकादमिक शब्द भी है। इसके विपरीत, साइबरनॉट ऑनलाइन खेल, वर्चुअल वर्ल्ड या अन्य ऑनलाइन कल्पना जगत का विशेषज्ञ होता है। इंटरनेट की दुनिया में यह केवल शब्द मात्र नहीं है। यह कहना उचित होगा कि साइबरनॉट वह व्यक्ति होते हैं जिनका विकास इंटरनेट के साथ-साथ होता है, लेकिन इंटरनॉट उन्हें कहा जाता है जिनका दखल इंटरनेट की समूची विकास प्रक्रिया में होता है, यानि वे इंटरनेट के विकास में भागी भी हो सकते हैं।
इसी तरह आम नेटिजन भी इंटरनेट से जुड़ी जानकारी रखता है। लेकिन इंटरनॉट या साइबरनॉट्स की तरह नेटिजन बहुत गहराई से इंटरनेट की जानकारी नहीं रखता है। इसका अर्थ ये हुआ, कि आवश्यक नहीं कि उसे इंटरनेट की स्थापना या गेमिंग आदि से जुड़ी कोई विशेष जानकारी हो ही। हालांकि, इंटरनॉट, साइबरनॉट और नेटिजन जैसे नाम इंटरनेट से जुड़े विशेषज्ञों को ही दिए जाते हैं, लेकिन इन्हें विशेष तौर पर लिया जाना आमफेहम वेब सरफर्स से अलग करता है। क्योंकि आम वेब सरफर्स में इंटरनेट पर अपने काम का डाटा खोजने वाले लगभग सभी लोग आते हैं।
23 अगस्त 2016 को डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू यानी वर्ल्ड वाइड वेब को अस्तित्व में आए 25 साल पूरे हो गए हैं. वर्ल्ड वाइड वेब को बनाने का श्रेय सर टिम बर्नर्स ली को जाता है जिन्होंने इस अवधारणा को मूर्त रूप प्रदान किया.
वर्ष 1983 में एक सर्वेक्षण के दौरान में उन लोगों से बात की गई थी जिन्होंने कंप्यूटर के ज़रिए किसी को संदेश भेजा था. इनमें से लगभग 50 प्रतिशत लोगों को यह तरीक़ा बहुत उपयोगी नहीं लगा था.
इसके बाद से प्यू रिसर्च सेंटर उन आंकड़ों को जुटाता रहा है जो बताते हैं कि गुजरे दशकों में अमरीकी इस तकनीक को किस तरह देखते रहे हैं.
आंकड़े बताते हैं कि 1983 में अमरीका में दस प्रतिशत लोगों के पास कंप्यूटर थे. लेकिन संदेश भेजने के लिए ज़्यादातर लोगों को यह तकनीक रास नहीं आई.
फिर लोगों को कंप्यूटर के ज़रिए ख़रीदारी का अनुभव हुआ.
सर्वेक्षण से पता चला था कि 1983 में कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे दस में से सात लोग इससे ख़रीदारी करना सुविधाजनक पाते हैं.
इस बारे में उन्होंने जो संदेश भेजा था वो यह था, ''ऐसी बहुत सारी चीज़ें ख़रीदना बहुत आसान है, जो परिवार के बजट में नहीं हैं.''
नंबर वन तकनीक
1995 में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक और सर्वेक्षण किया. इसमें पाया गया कि 42 प्रतिशत अमरीकियों ने इंटरनेट शब्द कभी सुना ही नहीं.
लेकिन ज़्यादातर लोगों ने माना कि कंप्यूटर के बिना रहना उनके लिए बड़ा मुश्किल है.
और फिर जब 2014 के आंकड़े देखे गए तो पता चला कि प्रत्येक दस में से एक व्यक्ति ऑनलाइन नहीं है.
प्यू रिसर्च की मानें तो आज वर्ल्ड वाइड वेब ही वह नंबर एक तकनीक है जिसे लोग छोड़ना नहीं चाहते हैं.
सर्वेक्षण में शामिल 67 प्रतिशत लोगों का मानना है कि संबंधों को मज़ूबत बनाने के लिए इंटरनेट अच्छा ज़रिया है.
यह विचार दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले लोगों में एक समान पाया गया है जिनमें स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, अमीर-ग़रीब सभी तरह के लोग शामिल हैं.
ज़्यादातर लोगों का कहना है कि उन्हें 'इंफोर्मेशन सुपरहाइवे' पर सवारी करना मज़ेदार लगता है.
इंटरनेट के जन्म से आज तक, इसके स्वरूप में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ चुका है. गोपनीय सरकारी दस्तावेज़ों से लेकर आम लोगों के चैट रिकॉर्ड और ईमेल, सभी कुछ इंटरनेट की वर्चुअल ताकों पर रखा हुआ है.
सोचिए इसका मालिकाना हक अगर किसी व्यक्ति या देश के पास होता तो वह देश कितना माला-माल हो जाता. लेकिन सच यह है कि इंटरनेट का कोई एक मालिक नहीं है.
इंटरनेट की उत्पत्ति और उसमें रोज़ाना होने वाले इनोवेशनों के लिए सरकारों से लेकर निजी क्षेत्र, इंजीनियर्स, सिविल सोसाइटी के लोगों के अलावा और भी कई क्षेत्रों का सहयोग है.
पर स्थिति तब चिंताजनक हो जाती है जब इंटरनेट पर प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण रखने की बात की जाए.
इंटरनेट पर अमरीका का 'दबदबा'
इंटरनेट गवर्नेंस पर पिछले दो दशकों से बहस हो रही है और इसे नियंत्रित किए जाने और ना किए जाने के पक्षों में लगातार चर्चाएं हो रहीं हैं.
इंटरनेट डोमेन यानी वेबसाइट पता जारी करने वाली संस्था, आईकैन (इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइंड नेम्स एंड नंबर्स) जैसी इंटरनेट की मूलभूत कंपनियां अमरीका में स्थित हैं, जिस वजह से ये माना जाता है कि इंटरनेट पर अमरीका का दबदबा है.
लेकिन इंटरनेट पर एकाधिकार की स्थिति से बचने के लिए इसे संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लाए जाने की कोशिश की जा रही है.
कुछ देश चाहते हैं कि इंटरनेट गवर्नेंस की ऐसी व्यवस्था बने जिसमें इंटरनेट सरकारों के नियंत्रण में रहे.
ऐसी मांग के पीछे एक अहम कारण ये भी है कि देशों को साइबर सुरक्षा की चिंता भी है और सुरक्षा के क्षेत्र में इसके दुरुपयोग का डर भी. यही कारण है कि कई देश मन ही मन इसके नियंत्रण का हक पाना चाहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के कई सदस्य एक ऐसी बहुपक्षीय व्यवस्था चाहते हैं बने जिसमें इंटरनेट से जुड़े सभी पक्षों का हित संरक्षित हो.
भारत में भी इंटरनेट की आज़ादी पर चर्चा
भारत में भी इस बारे में व्यापक तौर पर चर्चा की जा रही है. बीते बुधवार दिल्ली में इंटरनेट और टेलिकॉम से जुड़ी संस्थाओं ने मिलकर एक गोलमेज़ बैठक का आयोजन किया जिसमें सरकारी, गैर-सरकारी वर्ग और सिविल सोसाइटी के लोगों ने हिस्सा लिया. इनमें अध्ययन, व्यापार, वकालत, तकनीक और सामाजिक कार्य से जुड़े लोग शामिल हुए.
इंटरनेट गवर्नेंस से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के विशेष समूह मैग (मल्टी-स्टेकहोल्डर एडवायज़री ग्रुप) के सदस्य कहते हैं, “इंटरनेट सरकार के प्रारूप से बाहर की उपलब्धि है. अभिव्यक्ति की आज़ादी, सार्वलौकिकता, इनोवेशन ये सभी इसके मूल सिद्धांत हैं. ऐसे में विचार इस बात पर करना है कि क्या यूएन के तहत ऐसा कोई मॉडल बन सकता है जिसमें समाज, सरकार और निजी क्षेत्र समेत सभी को बराबर का अधिकार मिले.”
उनका कहना है, “ट्यूनिस एजेंडा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसमें मल्टीस्टेकहोल्डर्स के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी लेकिन इसे लिखे गए नौ साल हो गए हैं और साल 2015 में इसे अपडेट किया जाना है.”
बीते साल जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की कमीशन ऑन साइंस एंड टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट की बैठक में भारत ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा था कि इंटरनेट का अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन बहुपक्षीय, पारदर्शी और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए, जिसमें सरकार और दूसरे सहयोगियों की पूरी भागीदारी हो.
'अपनी जगह ब्राज़ील को दे रहा भारत'
हालांकि भारत ने इस बारे में अपने विचार दमदार तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के आगे नहीं रखे. कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत ने जानबूझकर इस बारे में मज़बूती से कदम नहीं उठाए और इस मामले पर विकासशील देशों के समूह का नेतृत्व ब्राज़ील को करने दिया.
विशेषज्ञ कहते हैं, “दूसरे विकासशील देशों के मुकाबले भारत की नुमाइंदगी काफ़ी कम है और इसके पीछे वजह आम जनमानस में इस मुद्दे पर जानकारी का अभाव है. इसीलिए सरकारें ऐसे मुद्दे प्रभावशाली तरीके से नहीं उठातीं.”
आने वाले समय में इंटरनेट की अगली एक अरब आबादी भारत, चीन और दक्षिण एशिया के देशों से ही आनी है. ऐसे में इस महत्वपूर्ण विषय पर भारत की भूमिका काफ़ी अहम हो जाती है.
फ़रवरी में यूएन-सीएसटीडी की बैठक में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश इंटरनेट गवर्नेंस और बहुपक्षीयता पर अपनी राय रखेंगे. ऐसे में ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत और अन्य विकासशील देश इस मुद्दे पर अपनी क्या राय रखते हैं.
इंटरनेट गवर्नेंस पर पिछले दो दशकों से बहस हो रही है और इसे नियंत्रित किए जाने और ना किए जाने के पक्षों में लगातार चर्चाएं हो रहीं हैं.
इंटरनेट डोमेन यानी वेबसाइट पता जारी करने वाली संस्था, आईकैन (इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइंड नेम्स एंड नंबर्स) जैसी इंटरनेट की मूलभूत कंपनियां अमरीका में स्थित हैं, जिस वजह से ये माना जाता है कि इंटरनेट पर अमरीका का दबदबा है.
लेकिन इंटरनेट पर एकाधिकार की स्थिति से बचने के लिए इसे संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लाए जाने की कोशिश की जा रही है.
कुछ देश चाहते हैं कि इंटरनेट गवर्नेंस की ऐसी व्यवस्था बने जिसमें इंटरनेट सरकारों के नियंत्रण में रहे.
ऐसी मांग के पीछे एक अहम कारण ये भी है कि देशों को साइबर सुरक्षा की चिंता भी है और सुरक्षा के क्षेत्र में इसके दुरुपयोग का डर भी. यही कारण है कि कई देश मन ही मन इसके नियंत्रण का हक पाना चाहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के कई सदस्य एक ऐसी बहुपक्षीय व्यवस्था चाहते हैं बने जिसमें इंटरनेट से जुड़े सभी पक्षों का हित संरक्षित हो.
भारत में भी इंटरनेट की आज़ादी पर चर्चा
भारत में भी इस बारे में व्यापक तौर पर चर्चा की जा रही है. बीते बुधवार दिल्ली में इंटरनेट और टेलिकॉम से जुड़ी संस्थाओं ने मिलकर एक गोलमेज़ बैठक का आयोजन किया जिसमें सरकारी, गैर-सरकारी वर्ग और सिविल सोसाइटी के लोगों ने हिस्सा लिया. इनमें अध्ययन, व्यापार, वकालत, तकनीक और सामाजिक कार्य से जुड़े लोग शामिल हुए.
इंटरनेट गवर्नेंस से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के विशेष समूह मैग (मल्टी-स्टेकहोल्डर एडवायज़री ग्रुप) के सदस्य कहते हैं, “इंटरनेट सरकार के प्रारूप से बाहर की उपलब्धि है. अभिव्यक्ति की आज़ादी, सार्वलौकिकता, इनोवेशन ये सभी इसके मूल सिद्धांत हैं. ऐसे में विचार इस बात पर करना है कि क्या यूएन के तहत ऐसा कोई मॉडल बन सकता है जिसमें समाज, सरकार और निजी क्षेत्र समेत सभी को बराबर का अधिकार मिले.”
उनका कहना है, “ट्यूनिस एजेंडा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसमें मल्टीस्टेकहोल्डर्स के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी लेकिन इसे लिखे गए नौ साल हो गए हैं और साल 2015 में इसे अपडेट किया जाना है.”
बीते साल जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की कमीशन ऑन साइंस एंड टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट की बैठक में भारत ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा था कि इंटरनेट का अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन बहुपक्षीय, पारदर्शी और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए, जिसमें सरकार और दूसरे सहयोगियों की पूरी भागीदारी हो.
'अपनी जगह ब्राज़ील को दे रहा भारत'
हालांकि भारत ने इस बारे में अपने विचार दमदार तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के आगे नहीं रखे. कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत ने जानबूझकर इस बारे में मज़बूती से कदम नहीं उठाए और इस मामले पर विकासशील देशों के समूह का नेतृत्व ब्राज़ील को करने दिया.
विशेषज्ञ कहते हैं, “दूसरे विकासशील देशों के मुकाबले भारत की नुमाइंदगी काफ़ी कम है और इसके पीछे वजह आम जनमानस में इस मुद्दे पर जानकारी का अभाव है. इसीलिए सरकारें ऐसे मुद्दे प्रभावशाली तरीके से नहीं उठातीं.”
आने वाले समय में इंटरनेट की अगली एक अरब आबादी भारत, चीन और दक्षिण एशिया के देशों से ही आनी है. ऐसे में इस महत्वपूर्ण विषय पर भारत की भूमिका काफ़ी अहम हो जाती है.
फ़रवरी में यूएन-सीएसटीडी की बैठक में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश इंटरनेट गवर्नेंस और बहुपक्षीयता पर अपनी राय रखेंगे. ऐसे में ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत और अन्य विकासशील देश इस मुद्दे पर अपनी क्या राय रखते हैं.