इतिहास की सबसे 'ताक़तवर' कंपनी की कहानी
आज आपको दुनिया की सबसे ताक़तवर कंपनी की कहानी
सुनाते हैं. इस कंपनी का नाम था 'ईस्ट इंडिया कंपनी'. जिसने
भारत समेत दुनिया के एक बड़े हिस्से पर लंबे वक़्त तक राज
किया. जिसके पास लाखों लोगों की फौज थी. अपनी
खुफ़िया एजेंसी थी. जिसके पास टैक्स वसूली का अधिकार
था.
सुनाते हैं. इस कंपनी का नाम था 'ईस्ट इंडिया कंपनी'. जिसने
भारत समेत दुनिया के एक बड़े हिस्से पर लंबे वक़्त तक राज
किया. जिसके पास लाखों लोगों की फौज थी. अपनी
खुफ़िया एजेंसी थी. जिसके पास टैक्स वसूली का अधिकार
था.
आज दुनिया में अरबों-ख़रबों की मल्टीनेशनल कंपनियां हैं, जैसे
एप्पल या गूगल. मगर ये सभी कंपनियां ईस्ट इंडिया कंपनी के
मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरतीं.
ईस्ट इंडिया कंपनी सन 1600 में बनाई गई थी. उस वक़्त ब्रिटेन की
महारानी थीं एलिज़ाबेथ प्रथम. जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को
एशिया में कारोबार करने की खुली छूट दी थी. मगर वक़्त ने ऐसी
करवट ली कि ये कंपनी कारोबार के बजाय सरकार बन बैठी.
एक दौर ऐसा भी था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्ज़े में एशिया के
तमाम देश थे. इस कंपनी के पास सिंगापुर और पेनांग जैसे बड़े बंदरगाह
थे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने ही मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे
महानगरों की बुनियाद रखी. ये ब्रिटेन में रोज़गार देने का सबसे
बड़ा ज़रिया थी.
भारत में इस कंपनी के पास ढाई लाख से ज़्यादा लोगों की फौज
थी. ये सिर्फ़ इंग्लैंड ही नहीं, यूरोप के तमाम देशों के लोगों की
ज़िंदगियों में दखल रखती थी. लोग चाय पीते थे तो ईस्ट इंडिया
कंपनी की, और कपड़े पहनते थे तो ईस्ट इंडिया कंपनी के.
ज़रा ईस्ट इंडिया कंपनी की आज की गूगल या अमेज़न से तुलना
करिए. साथ ही इनकी संपत्ति में टैक्स वसूलने की ताक़त जोड़िए.
ये भी कि कंपनी के पास अपनी खुफिया एजेंसी थी और लाखों
की फौज भी.
ईस्ट इंडिया कंपनी पर क़िताब लिखने वाले निक रॉबिंस कहते हैं
कि इस कंपनी की आज की बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों से तुलना
की जा सकती है. ईस्ट इंडिया कंपनी को शुरुआत से ही अपनी
फौज रखने की इजाज़त मिली हुई थी.
यहां भी इनसाइडर ट्रेडिंग, शेयर बाज़ार में उतार-चढ़ाव जैसे आज
की चीज़ों का असर और दखल था. वो कहते हैं कि जैसे आज
कंपनियां अपने फ़ायदे के लिए हुक्मरानों-नेताओँ के बीच लॉबीइंग
करती हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी भी उस दौर की सरकार से नज़दीकी
रखती थी. नेताओं-राजाओं को ख़ुश करने की कोशिश में जुटी
रहती थी.
लेकिन, आख़िर ये कंपनी थी कैसी? क्या इसका भी मुख्यालय आज
के गूगल या फ़ेसबुक जैसी कंपनियों के शानदार दफ़्तरों जैसा था.
इसके मुलाज़िमों को तनख़्वाह कितनी मिलती थी?
चलिए, इतिहास के पन्ने पलटकर इन सवालों के जवाब तलाशते हैं.
अपने दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी पाने के लिए लोगों में
होड़ मचती थी. मगर नौकरी पाना बहुत मुश्किल होता था.
किसी को भी नौकरी तब मिलती थी जब उसके नाम की
सिफ़ारिश कंपनी का कोई डायरेक्टर करे. कंपनी में ज़्यादातर मर्द
ही काम करते थे. सिर्फ़ साफ़-सफ़ाई के लिए महिलाएं रखी जाती
थीं.
ब्रिटिश लाइब्रेरी में ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेज़ रखे हुए हैं.
इनकी ज़िम्मेदारी संभालती हैं मार्गरेट मेकपीस. मार्गरेट बताती
हैं कि कंपनी के छोटे-मोटे कामों के लिए भी निदेशक की
सिफ़ारिश पर ही नौकरी मिलती थी.
कंपनी में कुल 24 निदेशक थे. कंपनी में जितनी नौकरियां होती थीं,
उनसे कई गुना ज़्यादा नौकरी की अर्ज़ियां आती थीं. अगर
निदेशक की सिफ़ारिश नहीं है, तो किसी को भी नौकरी
मिलना मुमकिन नहीं था.
लंदन में कंपनी के हेडक्वार्टर में मुंशी या लेखक की नौकरी के लिए
भी सिफ़ारिश ज़रूरी थी. किसको नौकरी मिलेगी ये इस बात पर
निर्भर करता था कि सिफ़ारिश किसने की है. क़ाबिलियत से
ज़्यादा कनेक्शन की वजह से नौकरी मिलती थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी पाने के लिए सिर्फ़ सिफ़ारिश से
काम नहीं चलता था. कंपनी को इसके लिए पैसे देने पड़ते थे, उस वक़्त
क़रीब पांच सौ पाउंड, जो आज क़रीब 52 हज़ार डॉलर या क़रीब
तैंतीस लाख रुपये. जितना बड़ा ओहदा उतनी ही ज़्यादा गारंटी
मनी देनी होती थी. इसके अलावा मुलाज़िमों को अच्छे बर्ताव
की गारंटी भी देनी पड़ती थी.
आज बिना सैलरी के काम करना, या काम करने के लिए पैसे देना
बहुत ख़राब माना जाता है. कुछ कंपनियों को तो इसके लिए
हर्जाना भरना पड़ा है.
मगर ईस्ट इंडिया कंपनी में करियर की शुरुआत, बिना पैसे की
नौकरी से ही होती थी. पहले तो पांच साल बिना तनख़्वाह के
काम करना पड़ता था. मगर 1778 में ये मियाद तीन साल कर दी
गई.
कई साल मुफ़्त में काम करने के बाद जाकर कंपनी दस पाउंड का
मेहनताना देना शुरू करती थी. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत होते-
होते कंपनी को ख़ुद एहसास हुआ कि सिर्फ़ सिफ़ारिश लाने
वालों को नौकरी देने से कंपनी का भला नहीं होगा.
कंपनी ने 1806 में अपने लिए कर्मचारी तैयार करने के लिए ईस्ट
इंडिया कॉलेज शुरू किया. हेलबरी में स्थित इस कॉलेज में कंपनी के
मुंशियों-बाबुओं को ट्रेनिंग दी जाती थी. यहां पर कर्मचारियों
को इतिहास, क़ानून और साहित्य के साथ हिंदुस्तानी, संस्कृत,
फारसी और तेलुगु ज़बानों की ट्रेनिंग भी दी जाती थी.
आज फ़ेसबुक और गूगल के शानदार हेडक्वार्टर्स की दुनिया में
मिसालें दी जाती हैं. आख़िर कैसा रहा होगा, दुनिया की सबसे
बड़ी कंपनी, ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय?
लंदन में स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय, यक़ीनन आज के
फ़ेसबुक और गूगल के हेडक्वार्टर जैसा नहीं था. मगर अपने दौर के
हिसाब से ये बेहद शानदार था. लंदन के लीडेनहाल इलाक़े में स्थित
कंपनी का मुख्यालय को 1790 में दोबारा बनवाया गया था. इसके
दरवाज़े पर इंग्लैंड के राजा किंग जॉर्ज थर्ड की जंग करते हुए मूर्ति
लगी थी.
इमारत का अंदरूनी हिस्सा किसी महल से कम नहीं था. दुनिया भर
से लगाए गए पत्थरों से जगमगाते हॉल और कमरे थे. कंपनी के कब्ज़े
वाले शहरों की तस्वीरें भी लगी होती थीं. जंग में जीते गए
सामानों की भी नुमाइश कंपनी के मुख्यालय में ज़ोर-शोर से की
जाती थी. कहीं शेर के शिकार करने की मूर्ति थी तो कहीं
सिल्क और कहीं, सोने से जड़ा टीपू सुल्तान का सिंहासन.
लंदन में कंपनी के कई गोदाम थे, जो कंपनी की ही तरह शानदार थे.
ये इंग्लैंड के लोगों पर रौब-दाब कायम करने के लिहाज़ से बनाए
जाते थे. बहुत बड़े और शानदार.
आज बहुत सी कंपनियां अपने कर्मचारियों के झपकी लेने के अड्डे
मुहैया कराती हैं. मगर ईस्ट इंडिया कंपनी तो अपने दौर में
कर्मचारियों के रहने का भी इंतज़ाम करती थी. बहुत से कर्मचारी,
इसके लंदन के दफ़्तर के कंपाउंड में ही रहते थे. कुछ लोगों को इसके
लिए पैसे देने पड़ते थे. तो कुछ लोगों को ये सुविधा मुफ़्त में मिलती
थी. कंपनी की सुविधाओं का बेज़ा इस्तेमाल करने वालों को सख़्त
सज़ा दी जाती थी.
कंपनी के इंग्लैंड के बाहर के दफ़्तरों में काम करने वालों को भी रहने
की सुविधा मिलती थी. कर्मचारी, हमेशा अपने सीनियर्स की
निगाहों में रहते थे. अनुशासन सख़्त था. शराब पीकर किसी से
बदसलूकी करने पर कर्मचारियों को क़ैद में रखा जाता था.
विदेशों में ईस्ट इंडिया कंपनी के ठिकाने अलग अलग तरह के होते थे.
जैसे सूरत में कंपनी की फैक्ट्री के साथ ही चर्च, लाइब्रेरी और
हमाम था. वहीं, जापान के हिराडो में बाग़ थे, और स्विमिंग पूल
भी होते थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वालों को खाना भी दिया
जाता था. जैसे ही मुलाज़िम, दफ़्तर आते थे उन्हें नाश्ता दिया
जाता था. विदेश में कंपनी के ठिकानों में लोगों को खाना
दिया जाता था. हालांकि, खर्च में कटौती के नाम पर ये सुविधा
1834 में बंद कर दी गई थी.
1689 में सूरत की फैक्ट्री का दौरा करने वाले अंग्रेज़ पादरी जॉन
ओविंगटन ने लिखा था कि वहां पर एक भारतीय, एक अंग्रेज़ और
एक पुर्तगाली रसोइया थे. इसका मक़सद था कि सबको अपनी पसंद
का खाना मिले. लोगों को मांसाहारी और शाकाहारी, दोनों
तरह का खाना मुहैया कराया जाता था.
इतवार को खाने की वेराइटी बढ़ जाती थी. सूखे मेवों जैसे पिस्ते,
बादाम और किशमिश पर काफ़ी ज़ोर था. बाहर से आने वाले
किसी नामचीन शख़्सीयत की ख़ूब आवभगत होती थी. इस पर
काफ़ी पैसे ख़र्च किए जाते थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों को शराब तो खुलकर मुहैया कराई
जाती थी. इंडोनेशिया के सुमात्रा में कंपनी के 19 कर्मचारियों ने
एक साल में 894 बोतल वाइन, 600 बोतल फ्रेंच शराब, 294 बोतल
बर्टन एले, दो पाइप और 42 गैलन मदेरिया, 274 बोतल चाड़ी और
164 गैलन गोवा की अरक गटक डाली थी.
कंपनी को जब इसका पता चला तो उसने ये जानने की कोशिश
की कि कहीं इतनी शराब पीकर कर्मचारी आपस में झगड़ा तो
नहीं कर रहे थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के लंदन के बंदरगाह में एक छोटा सा पब खोला
गया था. जिसमें कड़ी शर्तों के साथ बीयर और शराब बेची जाती
थी. लंदन में कंपनी की अपनी जेल भी थी.
आज तमाम कंपनियां अपने कर्मचारियों को तरह तरह की
सुविधाएं देती हैं. कोई विदेश यात्रा का कूपन देती है तो कोई
कंपनी कंसर्ट के टिकट मुफ़्त बांटती है.
इसी तरह, ईस्ट इंडिया कंपनी, विदेश जाने वाले अपने कर्मचारियों
को अपना कारोबार अलग से करने की मंज़ूरी देती थी. उन्हें कंपनी
के जहाज़ पर अपना निजी सामान लादकर स्वदेश लाने की भी
इज़ाज़त दी जाती थी. ये आज के टूर पैकेज या कंसर्ट के टिकट से
कहीं बड़ी रियायत थी.
ऐसी रियायतों से किसी कर्मचारी का अपना अच्छा ख़ासा
फ़ायदा होता था. किसी एक विदेशी टूर में हुई कमाई से कंपनी के
कर्मचारियों की ज़िंदगी ही नहीं, आने वाली नस्लों की ज़िंदगी
भी बन जाती थी. वहीं, कंपनी को सैलरी और बोनस के तौर पर
कम पैसे ख़र्च करने पड़ते थे.
कंपनी के कर्मचारियों को अपनी ही कंपनी के शेयर के कारोबार
में हिस्सा लेने की इजाज़त थी. ये फ़ायदे का सौदा था.
कर्मचारियों के पास आम लोगों से ज़्यादा जानकारी होती थी.
जिसका फ़ायदा वो शेयर की ख़रीद-फ़रोख़्त के दौरान लेते थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सर मनोरंजन के नाम पर ख़ूब पैसे उड़ाते थे.
जैसे उन्नीसवीं सदी में कंपनी के कुछ कर्मचारियों ने क़रीब उन्तीस
हज़ार डॉलर का डिनर ही कर डाला था. कंपनी के चेयरमैन को हर
साल एक लाख बत्तीस हज़ार पाउंड सिर्फ़ मन बहलाने के लिए
मिलते थे.
1834 में इन ख़र्चों में कटौती की गई थी. मगर 1867 में कंपनी के एक
अफसर सर जॉन के ने लिखा कि कंपनी से अच्छा डिनर कोई नहीं
देता. विदेशों के मुलाज़िमों पर भी ऐसी ही मेहरबानी होती थी.
किसी फैक्ट्री के कैप्टन को सिर्फ़ डिनर के लिए सालाना क़रीब
तैंतीस हज़ार पाउंड मिलते थे.
विदेशी कर्मचारियों को अक्सर महंगे तोहफ़े, जैसे गहने, सिल्क के
कपड़े मिलते थे. साथ ही ज़मींदार, नवाब जैसे लोग, इन
कर्मचारियों को महंगे-महंगे तोहफ़े दिया करते थे.
अपने लंबे इतिहास में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अच्छे और बुरे दोनों दौर
देखे. भ्रष्टाचार और हेराफ़ेरी और ख़राब मैनेजमेंट के आरोप भी लगे.
1764 के बाद कंपनी ने एक ख़ास क़ीमत से ज़्यादा के तोहफ़े लेने पर
रोक लगा दी थी.
अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी,
सबसे ज़्यादा तनख़्वाह पाने वाले लोगों में थे. कोई जितना
ज़्यादा वक़्त कंपनी में गुज़ारता था, उसकी उतनी ही ज़्यादा
सैलरी होती थी.
1815 में क्लर्क की तनख़्वाह सालाना 40 पाउंड यानी आज के
क़रीब 29 हज़ार पाउंड से शुरू होती थी. कंपनी में ग्यारह से पंद्रह
साल काम करने के बाद यही सैलरी पांच गुना से भी ज़्यादा बढ़
जाती थी. 1840 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के क्लर्क की तनख्वाह
किसी आम मज़दूर से बारह गुनी ज़्यादा थी.
इसके अलावा, ईस्ट इंडिया कंपनी अपने कर्मचारियों को अच्छी
ख़ासी पेंशन भी देती थी. चालीस साल काम करने वाले को सैलरी
का तीन चौथाई हिस्सा पेंशन के तौर पर मिलता था. वहीं पचास
साल काम करने वाले मुलाज़िम को सैलरी के बराबर पेंशन दी
जाती थी.
आम कर्मचारियों के मुक़ाबले, ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों को
कम पैसे मिलते थे. आज के सीईओ जैसी मोटी तनख़्वाह उन्हें नहीं
मिलती थी. मगर, इसकी भरपाई कभी घूस तो कभी तोहफ़ों के
तौर पर हो जाती थी. क्योंकि इन निदेशकों के अच्छे ख़ासे
अधिकार हुआ करते थे.
सब फ़ायदों को जोड़ लिया जाए तो उस वक़्त ईस्ट इंडिया कंपनी
के निदेशकों को हासिल होने वाली रकम, आज के महंगे सीईओ की
सैलरी के बराबर ही थे.
आज कंपनियां, अपने कर्मचारियों को कई तरह से छुट्टियां देती हैं.
मगर ईस्ट इंडिया कंपनी में छुट्टियों के लिए अच्छी ख़ासी मशक़्क़त
करनी पड़ती थी. किसी भी कर्मचारी की छुट्टी को बोर्ड ऑफ
डायरेक्टर्स से मंज़ूरी लेनी होती थी. ये बात और है कि उस दौर में
आज से ज़्यादा सरकारी छुट्टियां होती थीं.
हालांकि 1817 में सरकारी छुट्टियों में भारी कटौती की गई थी.
कर्मचारियों को सिर्फ़ क्रिसमस की छुट्टी की इजाज़त थी.
साथ ही कर्मचारियों को उनके काम के साल के हिसाब से एक से
चार दिन की छुट्टी दी जाने लगी थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी में लोगों को रोज़ाना बारह से तेरह घंटे तक
काम करना पड़ता था. सुबह सात बजे से लेकर रात के आठ बजे तक.
बीच में लंच के लिए दो घंटे की छूट मिलती थी. लोगों को
शनिवार को भी काम करना पड़ता था.
हालांकि कर्मचारियों की निगरानी में सख़्ती नहीं होने से कई
लोग इसका फ़ायदा भी उठाते थे. जैसे कि 1727 में निदेशकों को
पता चला कि जॉन स्मिथ नाम का एक कर्मचारी 16 महीनों से
काम पर नहीं आ रहा था और तनख़्वाह पूरी ले रहा था.
कंपनी के गोदामों में काम करने वालों को दिन में सिर्फ़ छह घंटे
काम करना पड़ता था. इसमें भी आधे घंटे का ब्रेक मिलता था. वहीं
बंदरहगाहों में काम के घंटे दस से बारह तक थे.
विदेशों की फैक्ट्रियों में काम करना आसान था. लोग आराम से
काम करते थे. काम और आराम के बीच अच्छा संतुलन था.
आज अमरीका में केवल आधे लोग अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं. वहीं
फ्रांस में केवल 43 फ़ीसद और जर्मनी में 34 परसेंट लोग नौकरी से
ख़ुश हैं.
सोचिए, आज से दो सौ साल पहले अपनी नौकरी के बारे में लोग
क्या सोचते थे? ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों को अपनी
नौकरी से कितनी संतुष्टि थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी के वो कर्मचारी, जिन्हें विदेश यात्रा करनी
पड़ती थी, उनके लिए ज़िंदगी मुश्किल थी. हादसे, बीमारियां,
जंग, सबके सब मौत के मुंह में धकेलने वाले ख़तरे थे. एक अंदाज़े के
मुताबिक़, ईस्ट इंडिया कंपनी के एशिया में तैनात आधे
कर्मचारियों को अपनी नौकरी के दौरान जान गंवानी पड़ती
थी.
वहीं, इंग्लैंड में काम करने वाले कर्मचारी अपनी नौकरी से बोर होते
थे. कुछ तो इतने बोर हो जाते थे कि काम ही नहीं करते थे.
इस बारे में कंपनी के एक कर्मचारी चार्ल्स लैंब ने अंग्रेज़ कवि
विलियम वर्ड्सवर्थ को चिट्ठी लिखी थी और खुलकर अपनी
बोरियत का इज़हार किया था. नौकरी से बोर होने के बावजूद
उसने तीन साल ज़्यादा काम किया और आठ साल पेंशन ली थी.
इन बातों से साफ़ है कि ईस्ट इंडिया कंपनी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी
थी, लेकिन आज जैसी एमएनसी नहीं. इसके पास ताक़त थी, पैसा
था, सेना थी, जासूसी विभाग था. इसने भारत समेत कई देशों में
अंग्रेज़ों का राज स्थापित किया.
मगर हर चीज़ का एक दौर होता है. 1857 में भारत में बग़ावत के बाद
कंपनी का बुरा दौर शुरू हुआ. 1874 में अंग्रेज़ सरकार ने कंपनी को
पूरी तरह से बंद कर दिया.
तमाम देश थे. इस कंपनी के पास सिंगापुर और पेनांग जैसे बड़े बंदरगाह
थे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने ही मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे
महानगरों की बुनियाद रखी. ये ब्रिटेन में रोज़गार देने का सबसे
बड़ा ज़रिया थी.
भारत में इस कंपनी के पास ढाई लाख से ज़्यादा लोगों की फौज
थी. ये सिर्फ़ इंग्लैंड ही नहीं, यूरोप के तमाम देशों के लोगों की
ज़िंदगियों में दखल रखती थी. लोग चाय पीते थे तो ईस्ट इंडिया
कंपनी की, और कपड़े पहनते थे तो ईस्ट इंडिया कंपनी के.
ज़रा ईस्ट इंडिया कंपनी की आज की गूगल या अमेज़न से तुलना
करिए. साथ ही इनकी संपत्ति में टैक्स वसूलने की ताक़त जोड़िए.
ये भी कि कंपनी के पास अपनी खुफिया एजेंसी थी और लाखों
की फौज भी.
ईस्ट इंडिया कंपनी पर क़िताब लिखने वाले निक रॉबिंस कहते हैं
कि इस कंपनी की आज की बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों से तुलना
की जा सकती है. ईस्ट इंडिया कंपनी को शुरुआत से ही अपनी
फौज रखने की इजाज़त मिली हुई थी.
यहां भी इनसाइडर ट्रेडिंग, शेयर बाज़ार में उतार-चढ़ाव जैसे आज
की चीज़ों का असर और दखल था. वो कहते हैं कि जैसे आज
कंपनियां अपने फ़ायदे के लिए हुक्मरानों-नेताओँ के बीच लॉबीइंग
करती हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी भी उस दौर की सरकार से नज़दीकी
रखती थी. नेताओं-राजाओं को ख़ुश करने की कोशिश में जुटी
रहती थी.
लेकिन, आख़िर ये कंपनी थी कैसी? क्या इसका भी मुख्यालय आज
के गूगल या फ़ेसबुक जैसी कंपनियों के शानदार दफ़्तरों जैसा था.
इसके मुलाज़िमों को तनख़्वाह कितनी मिलती थी?
चलिए, इतिहास के पन्ने पलटकर इन सवालों के जवाब तलाशते हैं.
अपने दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी पाने के लिए लोगों में
होड़ मचती थी. मगर नौकरी पाना बहुत मुश्किल होता था.
किसी को भी नौकरी तब मिलती थी जब उसके नाम की
सिफ़ारिश कंपनी का कोई डायरेक्टर करे. कंपनी में ज़्यादातर मर्द
ही काम करते थे. सिर्फ़ साफ़-सफ़ाई के लिए महिलाएं रखी जाती
थीं.
ब्रिटिश लाइब्रेरी में ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेज़ रखे हुए हैं.
इनकी ज़िम्मेदारी संभालती हैं मार्गरेट मेकपीस. मार्गरेट बताती
हैं कि कंपनी के छोटे-मोटे कामों के लिए भी निदेशक की
सिफ़ारिश पर ही नौकरी मिलती थी.
कंपनी में कुल 24 निदेशक थे. कंपनी में जितनी नौकरियां होती थीं,
उनसे कई गुना ज़्यादा नौकरी की अर्ज़ियां आती थीं. अगर
निदेशक की सिफ़ारिश नहीं है, तो किसी को भी नौकरी
मिलना मुमकिन नहीं था.
लंदन में कंपनी के हेडक्वार्टर में मुंशी या लेखक की नौकरी के लिए
भी सिफ़ारिश ज़रूरी थी. किसको नौकरी मिलेगी ये इस बात पर
निर्भर करता था कि सिफ़ारिश किसने की है. क़ाबिलियत से
ज़्यादा कनेक्शन की वजह से नौकरी मिलती थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी पाने के लिए सिर्फ़ सिफ़ारिश से
काम नहीं चलता था. कंपनी को इसके लिए पैसे देने पड़ते थे, उस वक़्त
क़रीब पांच सौ पाउंड, जो आज क़रीब 52 हज़ार डॉलर या क़रीब
तैंतीस लाख रुपये. जितना बड़ा ओहदा उतनी ही ज़्यादा गारंटी
मनी देनी होती थी. इसके अलावा मुलाज़िमों को अच्छे बर्ताव
की गारंटी भी देनी पड़ती थी.
आज बिना सैलरी के काम करना, या काम करने के लिए पैसे देना
बहुत ख़राब माना जाता है. कुछ कंपनियों को तो इसके लिए
हर्जाना भरना पड़ा है.
मगर ईस्ट इंडिया कंपनी में करियर की शुरुआत, बिना पैसे की
नौकरी से ही होती थी. पहले तो पांच साल बिना तनख़्वाह के
काम करना पड़ता था. मगर 1778 में ये मियाद तीन साल कर दी
गई.
कई साल मुफ़्त में काम करने के बाद जाकर कंपनी दस पाउंड का
मेहनताना देना शुरू करती थी. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत होते-
होते कंपनी को ख़ुद एहसास हुआ कि सिर्फ़ सिफ़ारिश लाने
वालों को नौकरी देने से कंपनी का भला नहीं होगा.
कंपनी ने 1806 में अपने लिए कर्मचारी तैयार करने के लिए ईस्ट
इंडिया कॉलेज शुरू किया. हेलबरी में स्थित इस कॉलेज में कंपनी के
मुंशियों-बाबुओं को ट्रेनिंग दी जाती थी. यहां पर कर्मचारियों
को इतिहास, क़ानून और साहित्य के साथ हिंदुस्तानी, संस्कृत,
फारसी और तेलुगु ज़बानों की ट्रेनिंग भी दी जाती थी.
आज फ़ेसबुक और गूगल के शानदार हेडक्वार्टर्स की दुनिया में
मिसालें दी जाती हैं. आख़िर कैसा रहा होगा, दुनिया की सबसे
बड़ी कंपनी, ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय?
लंदन में स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय, यक़ीनन आज के
फ़ेसबुक और गूगल के हेडक्वार्टर जैसा नहीं था. मगर अपने दौर के
हिसाब से ये बेहद शानदार था. लंदन के लीडेनहाल इलाक़े में स्थित
कंपनी का मुख्यालय को 1790 में दोबारा बनवाया गया था. इसके
दरवाज़े पर इंग्लैंड के राजा किंग जॉर्ज थर्ड की जंग करते हुए मूर्ति
लगी थी.
इमारत का अंदरूनी हिस्सा किसी महल से कम नहीं था. दुनिया भर
से लगाए गए पत्थरों से जगमगाते हॉल और कमरे थे. कंपनी के कब्ज़े
वाले शहरों की तस्वीरें भी लगी होती थीं. जंग में जीते गए
सामानों की भी नुमाइश कंपनी के मुख्यालय में ज़ोर-शोर से की
जाती थी. कहीं शेर के शिकार करने की मूर्ति थी तो कहीं
सिल्क और कहीं, सोने से जड़ा टीपू सुल्तान का सिंहासन.
लंदन में कंपनी के कई गोदाम थे, जो कंपनी की ही तरह शानदार थे.
ये इंग्लैंड के लोगों पर रौब-दाब कायम करने के लिहाज़ से बनाए
जाते थे. बहुत बड़े और शानदार.
आज बहुत सी कंपनियां अपने कर्मचारियों के झपकी लेने के अड्डे
मुहैया कराती हैं. मगर ईस्ट इंडिया कंपनी तो अपने दौर में
कर्मचारियों के रहने का भी इंतज़ाम करती थी. बहुत से कर्मचारी,
इसके लंदन के दफ़्तर के कंपाउंड में ही रहते थे. कुछ लोगों को इसके
लिए पैसे देने पड़ते थे. तो कुछ लोगों को ये सुविधा मुफ़्त में मिलती
थी. कंपनी की सुविधाओं का बेज़ा इस्तेमाल करने वालों को सख़्त
सज़ा दी जाती थी.
कंपनी के इंग्लैंड के बाहर के दफ़्तरों में काम करने वालों को भी रहने
की सुविधा मिलती थी. कर्मचारी, हमेशा अपने सीनियर्स की
निगाहों में रहते थे. अनुशासन सख़्त था. शराब पीकर किसी से
बदसलूकी करने पर कर्मचारियों को क़ैद में रखा जाता था.
विदेशों में ईस्ट इंडिया कंपनी के ठिकाने अलग अलग तरह के होते थे.
जैसे सूरत में कंपनी की फैक्ट्री के साथ ही चर्च, लाइब्रेरी और
हमाम था. वहीं, जापान के हिराडो में बाग़ थे, और स्विमिंग पूल
भी होते थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वालों को खाना भी दिया
जाता था. जैसे ही मुलाज़िम, दफ़्तर आते थे उन्हें नाश्ता दिया
जाता था. विदेश में कंपनी के ठिकानों में लोगों को खाना
दिया जाता था. हालांकि, खर्च में कटौती के नाम पर ये सुविधा
1834 में बंद कर दी गई थी.
1689 में सूरत की फैक्ट्री का दौरा करने वाले अंग्रेज़ पादरी जॉन
ओविंगटन ने लिखा था कि वहां पर एक भारतीय, एक अंग्रेज़ और
एक पुर्तगाली रसोइया थे. इसका मक़सद था कि सबको अपनी पसंद
का खाना मिले. लोगों को मांसाहारी और शाकाहारी, दोनों
तरह का खाना मुहैया कराया जाता था.
इतवार को खाने की वेराइटी बढ़ जाती थी. सूखे मेवों जैसे पिस्ते,
बादाम और किशमिश पर काफ़ी ज़ोर था. बाहर से आने वाले
किसी नामचीन शख़्सीयत की ख़ूब आवभगत होती थी. इस पर
काफ़ी पैसे ख़र्च किए जाते थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों को शराब तो खुलकर मुहैया कराई
जाती थी. इंडोनेशिया के सुमात्रा में कंपनी के 19 कर्मचारियों ने
एक साल में 894 बोतल वाइन, 600 बोतल फ्रेंच शराब, 294 बोतल
बर्टन एले, दो पाइप और 42 गैलन मदेरिया, 274 बोतल चाड़ी और
164 गैलन गोवा की अरक गटक डाली थी.
कंपनी को जब इसका पता चला तो उसने ये जानने की कोशिश
की कि कहीं इतनी शराब पीकर कर्मचारी आपस में झगड़ा तो
नहीं कर रहे थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के लंदन के बंदरगाह में एक छोटा सा पब खोला
गया था. जिसमें कड़ी शर्तों के साथ बीयर और शराब बेची जाती
थी. लंदन में कंपनी की अपनी जेल भी थी.
आज तमाम कंपनियां अपने कर्मचारियों को तरह तरह की
सुविधाएं देती हैं. कोई विदेश यात्रा का कूपन देती है तो कोई
कंपनी कंसर्ट के टिकट मुफ़्त बांटती है.
इसी तरह, ईस्ट इंडिया कंपनी, विदेश जाने वाले अपने कर्मचारियों
को अपना कारोबार अलग से करने की मंज़ूरी देती थी. उन्हें कंपनी
के जहाज़ पर अपना निजी सामान लादकर स्वदेश लाने की भी
इज़ाज़त दी जाती थी. ये आज के टूर पैकेज या कंसर्ट के टिकट से
कहीं बड़ी रियायत थी.
ऐसी रियायतों से किसी कर्मचारी का अपना अच्छा ख़ासा
फ़ायदा होता था. किसी एक विदेशी टूर में हुई कमाई से कंपनी के
कर्मचारियों की ज़िंदगी ही नहीं, आने वाली नस्लों की ज़िंदगी
भी बन जाती थी. वहीं, कंपनी को सैलरी और बोनस के तौर पर
कम पैसे ख़र्च करने पड़ते थे.
कंपनी के कर्मचारियों को अपनी ही कंपनी के शेयर के कारोबार
में हिस्सा लेने की इजाज़त थी. ये फ़ायदे का सौदा था.
कर्मचारियों के पास आम लोगों से ज़्यादा जानकारी होती थी.
जिसका फ़ायदा वो शेयर की ख़रीद-फ़रोख़्त के दौरान लेते थे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सर मनोरंजन के नाम पर ख़ूब पैसे उड़ाते थे.
जैसे उन्नीसवीं सदी में कंपनी के कुछ कर्मचारियों ने क़रीब उन्तीस
हज़ार डॉलर का डिनर ही कर डाला था. कंपनी के चेयरमैन को हर
साल एक लाख बत्तीस हज़ार पाउंड सिर्फ़ मन बहलाने के लिए
मिलते थे.
1834 में इन ख़र्चों में कटौती की गई थी. मगर 1867 में कंपनी के एक
अफसर सर जॉन के ने लिखा कि कंपनी से अच्छा डिनर कोई नहीं
देता. विदेशों के मुलाज़िमों पर भी ऐसी ही मेहरबानी होती थी.
किसी फैक्ट्री के कैप्टन को सिर्फ़ डिनर के लिए सालाना क़रीब
तैंतीस हज़ार पाउंड मिलते थे.
विदेशी कर्मचारियों को अक्सर महंगे तोहफ़े, जैसे गहने, सिल्क के
कपड़े मिलते थे. साथ ही ज़मींदार, नवाब जैसे लोग, इन
कर्मचारियों को महंगे-महंगे तोहफ़े दिया करते थे.
अपने लंबे इतिहास में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अच्छे और बुरे दोनों दौर
देखे. भ्रष्टाचार और हेराफ़ेरी और ख़राब मैनेजमेंट के आरोप भी लगे.
1764 के बाद कंपनी ने एक ख़ास क़ीमत से ज़्यादा के तोहफ़े लेने पर
रोक लगा दी थी.
अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी,
सबसे ज़्यादा तनख़्वाह पाने वाले लोगों में थे. कोई जितना
ज़्यादा वक़्त कंपनी में गुज़ारता था, उसकी उतनी ही ज़्यादा
सैलरी होती थी.
1815 में क्लर्क की तनख़्वाह सालाना 40 पाउंड यानी आज के
क़रीब 29 हज़ार पाउंड से शुरू होती थी. कंपनी में ग्यारह से पंद्रह
साल काम करने के बाद यही सैलरी पांच गुना से भी ज़्यादा बढ़
जाती थी. 1840 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के क्लर्क की तनख्वाह
किसी आम मज़दूर से बारह गुनी ज़्यादा थी.
इसके अलावा, ईस्ट इंडिया कंपनी अपने कर्मचारियों को अच्छी
ख़ासी पेंशन भी देती थी. चालीस साल काम करने वाले को सैलरी
का तीन चौथाई हिस्सा पेंशन के तौर पर मिलता था. वहीं पचास
साल काम करने वाले मुलाज़िम को सैलरी के बराबर पेंशन दी
जाती थी.
आम कर्मचारियों के मुक़ाबले, ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों को
कम पैसे मिलते थे. आज के सीईओ जैसी मोटी तनख़्वाह उन्हें नहीं
मिलती थी. मगर, इसकी भरपाई कभी घूस तो कभी तोहफ़ों के
तौर पर हो जाती थी. क्योंकि इन निदेशकों के अच्छे ख़ासे
अधिकार हुआ करते थे.
सब फ़ायदों को जोड़ लिया जाए तो उस वक़्त ईस्ट इंडिया कंपनी
के निदेशकों को हासिल होने वाली रकम, आज के महंगे सीईओ की
सैलरी के बराबर ही थे.
आज कंपनियां, अपने कर्मचारियों को कई तरह से छुट्टियां देती हैं.
मगर ईस्ट इंडिया कंपनी में छुट्टियों के लिए अच्छी ख़ासी मशक़्क़त
करनी पड़ती थी. किसी भी कर्मचारी की छुट्टी को बोर्ड ऑफ
डायरेक्टर्स से मंज़ूरी लेनी होती थी. ये बात और है कि उस दौर में
आज से ज़्यादा सरकारी छुट्टियां होती थीं.
हालांकि 1817 में सरकारी छुट्टियों में भारी कटौती की गई थी.
कर्मचारियों को सिर्फ़ क्रिसमस की छुट्टी की इजाज़त थी.
साथ ही कर्मचारियों को उनके काम के साल के हिसाब से एक से
चार दिन की छुट्टी दी जाने लगी थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी में लोगों को रोज़ाना बारह से तेरह घंटे तक
काम करना पड़ता था. सुबह सात बजे से लेकर रात के आठ बजे तक.
बीच में लंच के लिए दो घंटे की छूट मिलती थी. लोगों को
शनिवार को भी काम करना पड़ता था.
हालांकि कर्मचारियों की निगरानी में सख़्ती नहीं होने से कई
लोग इसका फ़ायदा भी उठाते थे. जैसे कि 1727 में निदेशकों को
पता चला कि जॉन स्मिथ नाम का एक कर्मचारी 16 महीनों से
काम पर नहीं आ रहा था और तनख़्वाह पूरी ले रहा था.
कंपनी के गोदामों में काम करने वालों को दिन में सिर्फ़ छह घंटे
काम करना पड़ता था. इसमें भी आधे घंटे का ब्रेक मिलता था. वहीं
बंदरहगाहों में काम के घंटे दस से बारह तक थे.
विदेशों की फैक्ट्रियों में काम करना आसान था. लोग आराम से
काम करते थे. काम और आराम के बीच अच्छा संतुलन था.
आज अमरीका में केवल आधे लोग अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं. वहीं
फ्रांस में केवल 43 फ़ीसद और जर्मनी में 34 परसेंट लोग नौकरी से
ख़ुश हैं.
सोचिए, आज से दो सौ साल पहले अपनी नौकरी के बारे में लोग
क्या सोचते थे? ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों को अपनी
नौकरी से कितनी संतुष्टि थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी के वो कर्मचारी, जिन्हें विदेश यात्रा करनी
पड़ती थी, उनके लिए ज़िंदगी मुश्किल थी. हादसे, बीमारियां,
जंग, सबके सब मौत के मुंह में धकेलने वाले ख़तरे थे. एक अंदाज़े के
मुताबिक़, ईस्ट इंडिया कंपनी के एशिया में तैनात आधे
कर्मचारियों को अपनी नौकरी के दौरान जान गंवानी पड़ती
थी.
वहीं, इंग्लैंड में काम करने वाले कर्मचारी अपनी नौकरी से बोर होते
थे. कुछ तो इतने बोर हो जाते थे कि काम ही नहीं करते थे.
इस बारे में कंपनी के एक कर्मचारी चार्ल्स लैंब ने अंग्रेज़ कवि
विलियम वर्ड्सवर्थ को चिट्ठी लिखी थी और खुलकर अपनी
बोरियत का इज़हार किया था. नौकरी से बोर होने के बावजूद
उसने तीन साल ज़्यादा काम किया और आठ साल पेंशन ली थी.
इन बातों से साफ़ है कि ईस्ट इंडिया कंपनी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी
थी, लेकिन आज जैसी एमएनसी नहीं. इसके पास ताक़त थी, पैसा
था, सेना थी, जासूसी विभाग था. इसने भारत समेत कई देशों में
अंग्रेज़ों का राज स्थापित किया.
मगर हर चीज़ का एक दौर होता है. 1857 में भारत में बग़ावत के बाद
कंपनी का बुरा दौर शुरू हुआ. 1874 में अंग्रेज़ सरकार ने कंपनी को
पूरी तरह से बंद कर दिया.
सोर्स बीबीसी