अन्तर्राष्ट्रिय महिला दिवस : कुछ तो बोलो, खामोश स्त्रियो ~ Shamsher ALI Siddiquee

Shamsher ALI Siddiquee

मैं इस विश्व के जीवन मंच पर अदना सा किरदार हूँ जो अपनी भूमिका न्यायपूर्वक और मन लगाकर निभाने का प्रयत्न कर रहा है। पढ़ाई लिखाई के हिसाब से विज्ञान के इंफोर्मेशन टेक्नॉलोजी में स्नातक हूँ और पेशे से सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हूँ तथा मेरी कंपनी में मेरा पद मुझे लीड सॉफ़्टवेयर इंजीनियर बताता है।

Shamsher ALI Siddiquee

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अन्तर्राष्ट्रिय महिला दिवस : कुछ तो बोलो, खामोश स्त्रियो

    


हर साल महिला दिवस के नाम पर एक दिवस आता है और हम खुद को समूचा उड़ेल
देते हैं, नारों, भाषणों, सेमिनारों और आलेखों में। बड़े-बड़े दावे, बड़ी-
बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी कल्पनाएं...।
लेकिन इन
बड़ी बातों के पीछे का यथार्थ इतना क्रूर, कि एक कोई घटना
तमाचे की तरह गाल पर पड़ती है और हम फिर बेबस,
असहाय, अकिंचन से हो जाते हैं ।

महिला दिवस हम सभी का अस्मिता दिवस है। गरिमा दिवस या जागरण दिवस
कह लीजिए। उन जुझारू और जीवट महिलाओं की
स्मृति में मनाया जाने वाला जो काम के घंटे कम किए जाने के लिए संघर्ष
करती हुई शहीद हो गई। इतिहास में महिलाओं द्वारा प्रखरता
से दर्ज किया गया वह पहला संगठित विरोध था। फलत: 8 मार्च नियत हुआ
महिलाओं की उस अदम्य इच्छाशक्ति और दृढ़ता को सम्मानित करने के
लिए।
जब हम 'फेमिनिस्ट' होते हैं तब जोश और संकल्पों से लैस हो दुनिया को बदलने
निकल पड़ते हैं। तब हमें नहीं दिखाई देती अपने
ही आसपास की सिसकतीं, सुबकतीं स्वयं
को संभालतीं खामोश स्त्रियां। न जाने कितनी शोषित,
पीड़ित और व्यथित नारियां हैं, जो मन की अथाह गहराइयों में
दर्द के समुद्री शैवाल छुपाए हैं।
कब-कब, कहां-कहां, कैसे-कैसे छली और तली गई स्त्रियां।
मन, कर्म और वचन से प्रताड़ित नारियां। मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक-
असामाजिक कुरीतियों, विकृतियों की शिकार महिलाएं। सामाजिक ढांचे
में छटपटातीं, कसमसातीं औरत, जिन्हें कोई देखना या सुनना
पसंद नहीं करता। क्यों हम जागें किसी एक दिन। क्यों न जागें
हर दिन, हर पल अपने आपके लिए।
8 मार्च मनाएं, लेकिन महिला दिवस सही अर्थों में तब होता है जब
सुनीता विलियम्स सितारों की दुनिया में मुस्कुराती हुई
विचरण करती हैं। तब जब तमाम 'प्रभावों' का इस्तेमाल करने के बाद
भी कोई 'मनु शर्मा' सलाखों के पीछे चला जाता है और एक लड़ाई
जीत ली जाती है।
मगर तब महिला दिवस किस 'श्राद्ध' की तरह लगता है जब
नन्ही-सुकोमल बच्चियां निम्न स्तरीर तरीके से
छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। शर्म आती है इस
दिवस को मनाने से जब 'धन्वंतरि' जैसी सास किसी हॉरर शो
की तरह अपनी बहू के टुकड़े कर डालती है और
एक समय विशेष के बाद एक राजनीतिक चादर में गठरी बनाकर
न जाने कौन से बगीचे के कोने में फेंक दी जाती है।
जाने कहां चले जाते हैं वे मंचासीन सफेदपोश जो 'भूमि' के फोटो को माला
पहनाकर खुद माला पहन कार का शीशा चढ़ाकर धुआं छोड़ते दिखाई देते थे।
पहले उस राजनीतिक चादर की गठरी
खोलनी होगी, जिसमें नारी जाति की अस्मिता
टुकड़े करके रखी गई है। नन्ही बालिकाएं अभी
समझ भी नहीं पाती हैं कि उनके साथ हुआ क्या है
और शहर का मीडिया खबर के बहाने रस लेने दौड़ पड़ता है।
कितना गिर गए हैं हम और अभी कितना गिरने वाले हैं। रसातल में
भी जगह बचेगी या नहीं? एक अजीब-
सा तर्क भी उछलता है कि महिलाएं स्वयं को परोसती हैं तब
पुरुष उसे छलता है। या तब पुरुष गिरता है। सवाल यह है कि पुरुष का चरित्र इस
समाज में इतना दुर्बल क्यों है?
उसके अपने आदर्श, संस्कार, मूल्य, नैतिकता, गरिमा और दृढ़ता किस जेब में रखे
सड़ रहे होते हैं? सारी की सारी मर्यादाएं देश
की 'सीताओं' के जिम्मे क्यों आती हैं जबकि 'राम' के
नाम पर लड़ने वाले पुरुषों में मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि क्यों नहीं
दिखाई देती?
पुरुष चाहे असंख्य अवगुणों की खान हो स्त्री को अपेक्षित
गुणों के साथ ही प्रस्तुत होना होगा। यह दोहरा दबाव क्यों और कब
तक? एक सहज, स्वतंत्र, शांत और सौम्य जीवन की
हकदार वह कब होगी?
स्त्री इस शरीर से परे भी कुछ है, यह प्रमाणित
करने की जरूरत क्यों पड़ती है? वह पृथक है, मगर इंसान
भी तो है। उसकी इस पृथकता में ही
उसकी विशिष्टता है। वह एक साथी, सहचर, सखी,
सहगामी हो सकती है लेकिन क्या जरूरी है कि वह
समाज के तयशुदा मापदंडों पर भी खरी उतरे?
स्त्रियों के हालात सिर्फ हमारे देश में ही नहीं बल्कि समूचे
विश्व में ही बेहतर नहीं हैं। झूठे आंकड़ों के डंडों से
बेहतरी का ढोल पीटा जा रहा है। अमेरिका जैसे तथाकथित
'सभ्य' देश में हर 15 सेकंड में एक महिला अपने पति द्वारा
पीटी जाती है। भारत जैसे संस्कारी राष्ट्र
में हर 7 मिनट में महिलाओं के विरुद्ध एक अपराध होता है। हर 54वें मिनट में एक
बलात्कार होता है।
जहां आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं, वहीं आंकड़ों के पीछे का
सच रुला देने वाला है। बशर्ते हममें संवेदनशीलता का अहसास बूंदभर
भी बचा हो। 'घरेलू हिंसा कानून' जैसे कानून बनते रहे, मगर सच यह है
कि हममें कानून तोड़ने की क्षमता अमलीकरण से ज्यादा है।
बहुत मन होता है कि दिवस के बहाने कुछ सकारात्मक सोचें, मगर जब चारों ओर
बलात्कार, अपहरण, हत्या, आत्महत्या, छेड़छाड़ प्रताड़ना, शोषण, अत्याचार,
मारपीट, भ्रूण हत्या और अपमान के आंकड़े बढ़ रहे हों तो महिला
प्रगति किन आंखों से देखे।
महिलाओं के प्रेरणादायी चरित्र गिनाए जा सकते हैं, मगर कैसे भूल जाएं
हम उस भारतीय स्त्री को जो गांवों और
मध्यमवर्गीय परिवारों की रौनक है, लेकिन रोने को मजबूर है।
महानगरों में रंगीन वस्त्रों में थिरकती-झूमती, क्लबों
में खेलती-इठलाती महिलाएं तो कतई स्वतंत्र नहीं
कही जा सकतीं। जिनकी अपनी कोई सोच
या दृष्टिकोण नहीं होता सिवाय इसके कि 'मैच' के 'बूंदें' और सैंडिल कहां से
मिल सकेंगे।
बजाय इसके स्वतंत्र और सक्षम मान सकते हैं उस महिला को जो मीलों
कीचड़ भरा रास्ता तय करके ग्रामीण अंचलों में पढ़ने या
प्रशिक्षण देने के लिए पहुंचती है। हम नमन कर सकते हैं उस महिला
जिजीविषा को जो कचरा बिनते हुए पढ़ने का ख्वाब बुनती है और
एक दिन अपना कंप्यूटर सेंटर संचालित करती है। मसाला, पापड़, वाशिंग
पावडर जैसी छोटी-छोटी चीजें
बनाती हैं और कर्मशीलता का अनूठा उदाहरण पेश
करती हैं। हम महिला दिवस मना सकते हैं उन साधारण महिलाओं
की 'साधारण' उपलब्धियों के लिए जो 'असाधारण' हैं।
महिला दिवस मनाया जाए उन तमाम मजदूर, कामगार और कामकाजी
महिलाओं के नाम, जो सीमित दायरों में संघर्ष और साहस के उदाहरण रच
रही हैं। एकदम सामान्य, नितांत साधारण मगर सचमुच असाधारण,
अद्वितीय।
वे महिलाएं जो तमाम विषमताओं के बीच भी टूटती
नहीं हैं, रुकती नहीं हैं... झुकती
नहीं हैं। अपने-अपने मोर्चों पर डटी रहती हैं बिना
थके। सम्माननीय है वह भारतीय नारी जो दुर्बलता
की नहीं प्रखरता की प्रतीक है। जो
दमित है, प्रताड़ित है उन्हें दया या कृपा की जरूरत नहीं है,
बल्कि झिंझोड़ने और झकझोरने की आवश्यकता है।
वे उठ खड़ी हों। चल पड़ें विजय अभियान पर। विजय इस समाज की
कुरीतियों पर, बंधनों पर और अवरोधों पर। शुभकामनाएं साल के पूरे 365
दिवस की। इसी क्षण की।

       नारी से जग है,नारी से सब है
हिन्दी के मूर्धन्य रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है -
'अबला जीवन तेरी तो बस यही कहानी,
आंचल में है दूध नयनों में पानी।'
शास्त्रों में तो नारी को ऊंचा स्थान मिला है, लेकिन व्यवहार में पुरुषों
की ही सत्ता समाज में कायम रही है और
नारी को तिरस्कृत नजरों से देखा गया है। आज नारियों पर जितने घिनौने
अत्याचार हो रहे हैं वह किसी से छिपा नहीं है, रावण काल में
भी इतना अत्याचार व दुष्कर्म नहीं हुआ होगा।
समाचार पत्रों व चैनलों में नारी उत्पीड़न और अत्याचार के
वीभत्स समाचार भरे पड़े रहते है।नारी शक्ति का सकारात्मक
पहलू यह है कि जहां नारियों ने विकास के झंडे गाड़े हैं, विभिन्न क्षेत्रों में सबला के
रुप में प्रतिस्थापित हुई है, वहीं दूसरा पहलू अत्यंत डरावना
भी है। नारियों पर अत्याचार, हत्या, मारपीट, बलात्कार,
शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना, वेश्यावृत्ति दिनोंदिन बढ़ते ही जा
रहे हैं।
इसका कारण यह भी हो सकता है कि अब नारी सशक्त होकर
सामने आई है, चुप नहीं बैठी है जो पुरुष प्रधान समाज को
बड़ी चुनौती लग रही है। उसे अपने अस्तित्व पर
संकट के बादल मंडराते नजर आते हैं।आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
पर हमें गम्भीरता से विचार करना है कि इस नाजुक मोड़ पर जब
नारी विकास की ओर निरंतर कदम बढ़ा रही है, हम
सबको उसकी सहायता करनी है।
हमारा संविधान और कानून सभी इसके लिए प्रतिबद्ध है। आवश्यकता है
सामाजिक स्तर पर विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की सोच
बदलने के बड़े प्रयास करने की।
आइये इस विशेष दिवस पर प्रण लें नारी के सम्मान का, उनके विकास में
सहयोग का। क्योंकि नारी से ही संसार समृद्ध, सुंदर और
चलायमान है.
"नारी से जग है,नारी से सब है।... कभी न भूले
हमारा अस्तित्व नारी से है... मां,बहन,पत्नी और
भी अनेक रूपों में नारी महान है.नारी का सम्मान
करें।"

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