गांधी @150 : आज जब पूरा विश्व अहिंसा दिवस मना रहा है गांधी के अपने देश में लोग मॉब लीनचिंग के शिकार हो रहे हैं! क्या थी उनकी सोच कश्मीर, गोरक्षा, मॉब लिंचिंग, अंतर-धार्मिक विवाह पर आईये जानते हैं ~ Shamsher ALI Siddiquee

Shamsher ALI Siddiquee

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गांधी @150 : आज जब पूरा विश्व अहिंसा दिवस मना रहा है गांधी के अपने देश में लोग मॉब लीनचिंग के शिकार हो रहे हैं! क्या थी उनकी सोच कश्मीर, गोरक्षा, मॉब लिंचिंग, अंतर-धार्मिक विवाह पर आईये जानते हैं

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महात्मा गांधी ने एक आज़ाद और आत्मनिर्भर भारत का सपना देखा था. और यह सपना केवल किसी सैद्धांतिक या दार्शनिक बुनियाद पर नहीं खड़ा किया गया था. यह एक व्यावहारिक परियोजना जैसी थी.
भारत का मतलब था भारत के लोग. सभी धर्मपंथों, क्षेत्रों, भाषाओं और जातियों के लोग. समानता, बंधुत्व और मानवीय गरिमा की भावना से ओत-प्रोत पुरुष, महिला और बच्चे तक को इस राष्ट्र के निर्माण में भागीदारी करनी थी. इसी से एक सेकुलर भारत को बनना था. दुनिया के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण बनना था.
लेकिन भारत इन मोर्चों पर आज कहां खड़ा है? आज अगर गांधी प्रकट होकर भारत की परीक्षा लेते तो उसे कितने अंक हासिल होते? और भारत ख़ुद अपनी नज़र में स्वयं को कितना अंक दे रहा होता? ये सब कुछ प्रश्न हैं. समस्याएं तो पूरी दुनिया के सामने मुंह बाए खड़ी हैं. लेकिन उन व्यापक समस्याओं से एकजुट होकर लड़ने की बजाए भारतीय समाज के कुछ तत्व आज ख़ुद भारत के लिए समस्याएं खड़ी करने में लगे हैं.
भले ही ऊपर-ऊपर से ये समस्याएं राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रकार की दिखती हों, लेकिन यह वास्तव में एक वैचारिक और अस्तित्ववादी संकटों का रूप लेते जा रहे हैं.

कश्मीर का असली राजा कौन?
कश्मीर में सब कुछ शांत है. भारत का समाज अब जबरिया ख़ामोशी को शांति समझने लगा है. पहले यहां के पत्रकारों के लिए यह वाक्य एक तकिया कलाम जैसा था कि 'स्थिति तनावपूर्ण, लेकिन नियंत्रण में है.'
अब राज्य-व्यवस्था ने सोचा कि 'तनावपूर्ण' कहते रहने से ब्रैंडिंग ठीक से नहीं होती. तो कहा कि इसे हटाओ और अब सीधे-सीधे बस इतना कहो कि स्थिति पूरी तरह 'नियंत्रण' में है. कश्मीर के लोग बल-प्रयोग के ज़रिए फ़ौरी तौर पर नियंत्रण में हैं. और शेष भारत की जनता प्रचार-माध्यमों के ज़रिए नियंत्रण में है.
ऐसे में गांधी होते तो क्या करते नहीं मालूम. लेकिन वह उस नाज़ुक दौर में कश्मीर को गले लगाने गए थे जब लोगों को लगता था कि अंग्रेज़ या कश्मीर के राजा से बस काग़ज़ी क़रार करके किसी भी ऐसे रियासत को अपना हिस्सा बनाया जा सकता है.
राज्य-व्यवस्था ऐसे ही सोचने की आदी होती है. यह एक दूरगामी ग़लती साबित हो सकती थी, जिसे गांधी तभी समझ गए थे. इसलिए उन्होंने कहा कि कश्मीर का मतलब केवल वहां का भूभाग या वहां का राजा नहीं है, बल्कि कश्मीर का मतलब है वहां की आवाम.
जिस गांधी ने देश की आवाम को साथ लेकर शक्तिशाली अंग्रेज़ी हुक़ूमत की चूलें हिला दी थीं, उन्हें आवाम की भावना का ख़याल रखना और उनका दिल जीतना ही सर्वोपरि लगा.
अपनी ऐतिहासिक कश्मीर यात्रा से दो दिन पहले 29 जुलाई, 1947 को अपने प्रार्थना प्रवचन में गांधीजी ने कहा था, "कश्मीर में राजा भी है और रैयत भी. मैं राजा को कोई ऐसी बात नहीं कहने जा रहा हूं कि वह पाकिस्तान में न सम्मिलित हों और भारतीय संघ में सम्मिलित हों. मैं इस काम के लिए वहां नहीं जाऊंगा. वहां राजा तो है, लेकिन सच्चा राजा तो प्रजा है."
"...वहां के लोगों से पूछा जाना चाहिए कि वे पाकिस्तान के संघ में जाना चाहते हैं या भारतीय संघ में. वे जैसा चाहें, करें. राजा तो कुछ है ही नहीं, प्रजा सब कुछ है. राजा तो दो दिन बाद मर जाएगा, लेकिन प्रजा तो रहेगी ही. कुछ लोगों ने मुझसे कहा है कि यह काम मैं पत्र-व्यवहार के ज़रिए ही क्यों नहीं करूं. तो मैं कहूंगा कि इस तरह तो मैं पत्र-व्यवहार के ज़रिए ही नोआखाली का काम भी कर सकता हूं."
जब पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर छद्म हमले की घटनाएं प्रकाश में आईं, तो उन्होंने 26 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान और भारत दोनों को स्पष्ट तौर पर चेताते हुए कहा था, "रियासत (कश्मीर) की असली राजा तो उसकी प्रजा है. अगर कश्मीर की प्रजा यह कहे कि वह पाकिस्तान में जाना चाहती है तो कोई ताक़त नहीं दुनिया में जो उसको पाकिस्तान में जाने से रोक सके."
"लेकिन उससे पूरी आज़ादी और आराम के साथ पूछा जाए. उस पर आक्रमण नहीं कर सकते. उसके देहातों को जलाकर उसे मजबूर नहीं कर सकते. अगर वहां की प्रजा यह कहे, भले ही वहां मुसलमानों की आबादी अधिक हो, कि उसको तो हिन्दुस्तान की यूनियन में रहना है, तो उसको कोई रोक नहीं सकता."
"अगर पाकिस्तान के लोग उसे मजबूर करने के लिए वहां जाते हैं तो पाकिस्तान की हुकूमत को उन्हें रोकना चाहिए. अगर वह नहीं रोकती है तो सारा का सारा इल्ज़ाम उसको अपने ऊपर ओढ़ना होगा. अगर यूनियन (भारत) के लोग उसे मजबूर करने जाते हैं, तो उनको रोकना है और उनको रुक जाना चाहिए, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है."

गांधी के लिए गोरक्षा का अर्थ

गांधी ख़ुद को सनातनी हिंदू कहते थे. वह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और इसकी आध्यात्मिक परंपरा की दृष्टि से भी गाय का महत्व समझते थे. लेकिन जानते थे कि भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज और निर्माणाधीन राष्ट्र में गाय की रक्षा ज़ोर-ज़बरदस्ती और भीड़-हत्या के ज़रिए नहीं की जा सकती.
गांधी गोपूजकों के सांप्रदायिक पाखंड को समझ चुके थे. तभी उन्होंने इतना तक कह दिया था कि ख़ुद को गोरक्षक कहने वाले ही असल में गौ-भक्षक हैं. उन्होंने गौ-रक्षा शब्द का प्रयोग तक करना बंद कर दिया था. उन्होंने कहा था कि ज़रूरत 'गौ-रक्षा' की नहीं, बल्कि 'गौ-सेवा' की है.
6 अक्टूबर, 1921 को 'यंग इंडिया' में हिंदू धर्म और गोरक्षा के संबंधों पर महात्मा गांधी ने लिखा था, "हिंदू धर्म के नाम पर ऐसे बहुत से काम किए जाते हैं, जो मुझे मंज़ूर नहीं है. अगर मैं सचमुच वैसा नहीं हूं तो मुझे सनातनी हिंदू अथवा अन्य किसी ढंग का हिंदू कहलाने की कोई ख़्वाहिश नहीं है."
"...मैं गोरक्षा में उसके लोक-प्रचलित रूप से कहीं अधिक व्यापक रूप में विश्वास करता हूं. ...और गोरक्षा का तरीक़ा है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना. गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिंदू धर्म और अहिंसा धर्म से विमुख होना है. हिंदुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्मशुद्धि द्वारा और आत्माहुति द्वारा गोरक्षा का विधान है."
"लेकिन आजकल की गोरक्षा का स्वरूप बिगड़ गया है. उसके नाम पर हम बराबर मुसलमानों से झगड़ा-फ़साद करते रहते हैं. जिस धर्म ने गाय की पूजा का प्रवर्तन किया, वह मनुष्य के निर्दयी और अमानवीय बहिष्कार का समर्थन कैसे कर सकता है, उसका औचित्य कैसे ठहरा सकता है?"
26 जनवरी, 1921 को गांधी लिखते हैं, "मुसलमानों के विरुद्ध यह कहा जाता है कि वे गोवध करते हैं लेकिन मैं कहता हूं कि बांद्रा के कत्लगाह में पांच वर्ष के अंदर जितनी गायें काटी जाती हैं, उतनी सात करोड़ मुसलमान पच्चीस वर्ष में भी नहीं मार सकते. आप गायों की पूजा करते हैं, लेकिन बैलों को मारते हैं. गायें दूध देती हैं, भैंसे भी दूध देती हैं. वे इतनी अधिक दुही जाती हैं कि उनके थनों से ख़ून झरने लगता है."
इसी तरह 19 जुलाई, 1947 के प्रार्थना प्रवचन में उन्होंने कहा, "आजकल मेरे पास तार-पर-तार आ रहे हैं कि मैं गोवध बंद करवाऊं. मगर हक़ीक़त तो यह है कि जो अपने को गौ-रक्षक कहते हैं, वही गौ-भक्षक हैं. वे यही समझकर मुझे तार देते हैं कि मैं जवाहरलाल या सरदार से ऐसा क़ानून बनाने को कहूं, लेकिन मैं उनसे नहीं कहूंगा."
"मैं तो इन गोरक्षकों से यह कहूंगा कि व्यर्थ का जो पैसा आप मुझे टेलीग्राम भेजने में ख़र्च करते हैं, वह पैसा गायों पर ही क्यों न ख़र्च करें? अगर आप नहीं ख़र्च कर सकते तो उसे मेरे पास भेज दें. मैं तो यह कहूंगा कि गाय की पूजा करने वाले भी हम हैं और उसका वध करने वाले भी हम ही हैं."

अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाह
भारत का समाज आज भी अंग्रेज़ बहू या अंग्रेज़ दामाद लाने पर संभवतः इतराता ही है, लेकिन वही भारतीय समाज अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह करने वालों को सरेआम पेड़ से लटकाकर फांसी दे देता है.
अपने ही बच्चों पर, नागरिकों पर ऐसी जंगली क्रूरता और बर्बरता का स्रोत क्या है? दरअसल जाति और संप्रदायों के अलग-अलग बाड़े में बंद होकर जीने वाला समाज मानवता के एक होने के आदर्श और निश्छल प्रेम को भी एक संकीर्ण, सांप्रदायिक और जातिवादी नज़रिए से देखने का अभ्यस्त हो चुका है.
जाति और संप्रदाय की ये मनोग्रंथियां भारत के एकजुट और सभ्य होने में सबसे अधिक बाधक हैं. गांधी इस बात को समझ चुके थे.
अपने शुरुआती दिनों में अंतर-जातीय विवाह का विरोध करने वाले गांधी ने बाद में इतना तक प्रण कर लिया था कि वह ऐसी किसी शादी में शरीक नहीं होंगे जिनमें लड़का या लड़की में से कोई एक दलित न हो. वह ऐसी शादियों का आयोजन अपने आश्रम तक में करवाते थे.
7 जुलाई, 1946 के 'हरिजन' में वह लिखते हैं, "यदि मेरा बस चले तो मैं अपने प्रभाव में आने वाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूं."
इसी तरह 8 मार्च, 1942 के 'हरिजन' में गांधी लिखते हैं, "जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, इस तरह के विवाह बढ़ेंगे, और उनसे समाज को फ़ायदा ही होगा. फ़िलहाल तो हम में आपसी सहिष्णुता का माद्दा भी पैदा नहीं हुआ है. लेकिन जब सहिष्णुता बढ़कर सर्वधर्म-समभाव में बदल जाएगी, तो ऐसे विवाहों का स्वागत किया जाएगा."
"आने वाले समाज की नवरचना में जो धर्म संकुचित रहेगा और बुद्धि की कसौटी पर ख़रा नहीं उतरेगा, वह टिक न सकेगा; क्योंकि उस समाज में मूल्य बदल जाएंगे. मनुष्य की कीमत उसके चरित्र के कारण होगी. धन पदवी या कुल के कारण नहीं."
"मेरी कल्पना का हिंदू धर्म कोई संकुचित संप्रदाय नहीं है. वह तो काल के समान ही पुरानी महान और सतत विकास की प्रक्रिया है. उसमें पारसी, मूसा, ईसा, मुहम्मद, नानक और ऐसे ही दूसरे धर्म-संस्थापकों का समावेश हो जाता है."
उसकी व्याख्या इस प्रकार है-
'विद्वद्भिः सेवितः सद्भिनित्यमद्वेषरागिभिः.
हृदयेनाम्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत..'
अर्थात् जिस धर्म को राग-द्वेषहीन ज्ञानी संतों ने अपनाया है और जिसे हमारा हृदय और बुद्धि ही स्वीकार करती है, वही सद्धर्म है.
लेकिन गांधी ऐसे विवाहों के आधार पर धर्म-परिवर्तन के भी सख़्त विरोधी थे. अपने इसी लेख में उन्होंने कहा था, "मैं हमेशा से इस बात का घोर विरोधी रहा हूं और अब भी हूं कि स्त्री-पुरुष सिर्फ़ विवाह के लिए अपना धर्म बदलें. धर्म कोई चादर या दुपट्टा नहीं कि जब चाहा ओढ़ लिया, जब चाहा उतार दिया. इस मामले में धर्म बदलने की कोई बात ही नहीं है."
पत्रकारों/संपादकों पर फ़र्ज़ी मुक़दमे करके पुलिसिया उत्पीड़न
पत्रकार का काम क्या है? पत्रकार का काम है राज्य-व्यवस्था द्वारा की जा रही ग़लतियों को निर्भीकतापूर्वक जनता के बीच में ले जाना ताकि उस पर एक लोकतांत्रिक अंकुश बना रहे. आज़ादी के संघर्ष से लेकर भारतीय लोकतंत्र तक को मज़बूत करने में, परिपक्व करने में भारत के निर्भीक और जनपक्ष पत्रकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
लेकिन आज क्या हो रहा है? सत्ता के ख़िलाफ़ ख़बर छापने पर पत्रकारों के साथ सरेआम मार-पीट की जाती है. झूठे मुकदमें दायर कर उन्हें हिरासत में ले लिया जा रहा है. मीडिया संस्थानों के मालिकों, संपादकों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए उन पर दबाव बनाया जाता है.
बिरले ही हैं जो इन दबावों को झेलकर भी अपने क़लम की धार बरक़रार रख पा रहे हैं. निर्भीक पत्रकारों की बर्ख़ास्तगी आम हो गई है. मीडिया की आज़ादी के मामले में दुनियाभर के देशों के मुक़ाबले भारत की स्थिति सबसे ख़राब बताई जा रही है. लोकतंत्र के हित में पत्रकारों को सुरक्षा देने के बजाय जब शासन-तंत्र ख़ुद ही उसके ख़िलाफ़ हो जाए, तो यह भावी समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
'नवाकाल' नाम के मराठी अख़बार के संपादक कृष्णजी प्रभाकर खाडिलकर पर जब-तब मुक़दमा चलाकर तब की सरकार उन्हें परेशान कर रही थी. महात्मा गांधी ने 4 अप्रैल, 1929 को उनके मामले पर लिखा था, "नवाकाल वाले श्री खाडिलकर के विरुद्ध जो मामला चलाया गया, वस्तुतः वह मुक़दमा नहीं उत्पीड़न है."
"लेकिन जो सरकार जनता के विरोध के बावजूद चलाई जा रही है, और विशेष रूप से उस हालत में जब, जैसा कि हमारे मामले में है, इन जन-विरोध का दमन किया जाता है, उस सरकार के राज्य में स्पष्टवक्ता संपादकों का उत्पीड़न एक निश्चित बात है. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था कि एक पत्रकार की हैसियत से उन्हें समय-समय पर जोखिम भरे कार्यों के लिए जो जुर्माना देना पड़ा था, उसे उन्होंने अक्सर नाटक लिख-लिखकर चुकाया."
तत्कालीन न्याय-व्यवस्था पर एक कठोर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी ने आगे लिखा था, "इस देश में अन्य सरकारी संस्थाओं की तरह क़ानूनी अदालतें भी ज़रूरत के मौक़ों पर सरकार की रक्षा के लिए क़ायम की गई हैं. इस तरह के अनुभव हमें बार-बार हो चुके हैं. अदालतें बुनियादी तौर पर ऐसी ही हैं."
"बात इतनी ही है कि जब जनता की स्वतंत्रता और सरकार का हित एक ही बात में होता है, तब हमें इसका पता नहीं चलता. जब सरकार के विरोध में रहते हुए भी जनता की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होती है, तब अदालतें उनकी रक्षा में असमर्थ पाई जाती हैं. उनसे हमारा जितना कम संबंध रहे उतना अच्छा."
राज्य-सत्ता द्वारा पुलिस के दुरुपयोग पर 26 जनवरी, 1922 को 'यंग इंडिया' में गांधीजी ने लिखा था, "इसमें संदेह नहीं कि भारत में पुलिस बदनाम है. दमन की आजकल की क्रूर कार्रवाइयों से यह बदनामी शायद और बढ़ी है. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस सरकार के हाथ का महज़ एक हथियार है."
भारत की आज़ादी से लगभग दो महीने पहले 5 जून, 1947 को कॉलेज के विद्यार्थियों से बातचीत करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, "अगर मेरा वश चलता तो मैं सेना और पुलिस में बुनियादी सुधार से शुरुआत करता. इंग्लैंड में पुलिस को लोग अपना सर्वश्रेष्ठ मित्र, सहायक और कर्तव्य-भावना का मूर्तरूप समझते हैं, मगर भारत में पुलिस को आम आदमी ख़ौफ़नाक और अत्याचारी समझता है."
सत्ता का अहंकार और सत्ता क़ायम रखने का लोभ न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक संस्थाओं को चौपट करके रख देती है, बल्कि वह समाज में भी द्वेष, आक्रोश, अशांति, मूढ़ता, ग़ुलामी और भय को जन्म देती है.
गांधी ये सब अपने लंबे व्यावहारिक अनुभवों से जानते थे. उन्होंने जीवन-भर इन्हीं सबके ख़िलाफ़ तो संघर्ष किया था. गांधीजी को याद करने का मतलब है उनके इन विचारों की रोशनी में समाज और राजनीति को देखना और बदलना. हाल में किसी ने बहुत अच्छा कहा कि गांधी को समझना और अपनाना जिन लोगों को मुश्किल लगा उनके लिए सबसे आसान था उनकी हत्या कर देना.
लेकिन किसी भी अन्याय, दमन, शोषण, पृथ्वी को निगलने वाले लोभ, अलोकतांत्रिक दुष्प्रयासों और विनाशकारी युद्धों के ख़िलाफ़ गांधी-विचार ज्यों-का-त्यों खड़ा है. वह भी अहिंसा, संयम, दया, करुणा, सत्य और प्रेम के आत्मविश्वास से भरकर खड़ा है.