यह पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम का सबसे बड़ा
अपमान था.
उनके अंतिम संस्कार के दिन याक़ूब मेमन को फाँसी देना कलाम
की इच्छा की सीधी अवहेलना थी, कलाम तो मौत की सज़ा का
खात्मा चाहते थे.
एक साथ कलाम के गुणगान और मेमन को फाँसी से हमारे राष्ट्रीय
चरित्र का दोहरापन ही ज़ाहिर होता है. या फिर शायद दोनों
एक ही भावना की अभिव्यक्ति हैं!
हम जिसे श्रद्धांजलि दे रहे थे, वे नरमदिल, मानवीय कलाम नहीं,
मिसाइल-पुरुष कलाम थे जो एक सख्त राष्ट्र की विध्वंसक ताकत
जुटाने की आकांक्षा को संतुष्ट करते थे.
चरित्र का दोहरापन?
दोहरापन और जगहों पर भी प्रकट हुआ. यह बड़े ताज्जुब की बात
थी कि याक़ूब के अंतिम संस्कार को भारत के टेलीविज़न चैनलों ने
नहीं दिखाया.
किसी के गड्ढे में गिर जाने पर चौबीस घंटे का कवरेज करने वाले इन
चैनलों ने इतने संयम का परिचय क्योंकर दिया होगा?
इसका रहस्य खुला जब पता चला कि मुंबई पुलिस की ओर से यह
विशेष आग्रह था कि क़ानून व्यवस्था भंग होने की आशंका को
देखते हुए जनाज़े को टेलीकास्ट न किया जाए.
ख़बर मिली कि कुछ चैनलों ने बाकायदा सूचना दी कि वे
दहशतगर्द की मैय्यत नहीं दिखाएंगे. मीडिया अपने राष्ट्रवादी
होने का सबूत पहले भी देता रहा है. इस बार यह भी साफ़ हो गया
कि इस राष्ट्रवाद में मुसलमान कलाम होकर ही जगह पा सकता है.
अखबारों की रिपोर्टों के मुताबिक़ मेमन के जनाज़े में शामिल
होने करीब आठ हज़ार मुसलमान मुंबई के अलग-अलग इलाकों से पहुँचे.
उन्होंने याक़ूब को दफ़नाए जाने की रस्म शांति और शालीनता के
साथ पूरी की.
एक व्यक्ति मुंबई पुलिस के एक अधिकारी के पास गया और उसे अमन
बनाए रखने के लिए शुक्रिया अदा करते हुए गुलाब का फूल दिया.
फिर ये सारे मुसलमान उसी ख़ामोशी के साथ अपने ठिकानों की
ओर चले गए.
दुख और रोष
मेमन के जनाज़े में शामिल इन मुसलमानों के दिल में दुख और रोष था
और वह भारत भर के मुसलमानों के मन में है. क्या इसलिए कि वे
दहशतगर्दी के हमदर्द हैं? नहीं! क्योंकि ज़्यादातर को यकीन है कि
याक़ूब के अपराध के मुक़ाबले उसकी सज़ा न्यायसंगत नहीं है.
यह बात उसे किसी मुस्लिम नेता या संगठन ने नहीं, हिंदू और
राष्ट्रवादी खुफिया अधिकारी बी रमन, धर्म से हिन्दू पूर्व विदेश
सचिव कृष्णन श्रीनिवासन, एक सिख मतावलंबी न्यायमूर्ति बेदी
ने बताई.
इन लोगों ने कहा कि यह सज़ा इंसाफ़ नहीं, ज्यादती है. फाँसी के
पहले आधी रात सर्वोच्च न्यायालय के ह्रदय को जगाने जो वकील
पहुंचे थे, उनमें एक भी मुसलमान न था.
सोशल मीडिया पर भद्दी टिप्पणियां
उन लोगों की सूची बार-बार अलग-अलग ठिकानों से क्यों जारी
की जा रही है जिन्होंने इस फाँसी को रोकने की अपील की
थी?
प्रशांत भूषण और आनंद ग्रोवर जैसे वकीलों को देशद्रोही, गद्दार
कहा जा रहा है, सोशल मीडिया पर इन सब लोगों को भद्दी
टिप्पणियों और धमकियों का निशाना बनाया जा रहा है.
यह सवाल भी मुसलमान पूछ रहे हैं कि पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत
सिंह की ह्त्या के अपराधी बलवंत सिंह राजोआना की फाँसी
की सज़ा के खिलाफ सिख बहुमत वाली पंजाब विधानसभा
प्रस्ताव पारित करने में तो नहीं हिचकिचाई, राजीव गांधी
हत्याकांड के अपराधियों की मौत की सज़ा टालने में तमिलनाडु
की विधानसभा को कभी नैतिक परेशानी नहीं हुई!
ओवैसी क्यों साम्प्रदायिक?
इनके समर्थकों को किसी ने आतंक का समर्थक नहीं बताया,
किसी हिंदूत्ववादी संगठन ने इन पर गालियों की बौछार नहीं
की.
फिर क्या याक़ूब मेमन को फाँसी सिर्फ इसलिए हो गई कि कोई
मुस्लिम बहुल विधानसभा भारत में नहीं है?
क्या कोई राजनीतिक दल, वाम दलों को छोड़, याक़ूब के लिए
इस वज़ह से नहीं खड़ा हो सका कि सबके सब, विचारधारा
कुछ भी हो, हिंदू बहुल दल हैं?
अगर राजोआना के समर्थन में बोलने के कारण अकाली
साम्प्रदायिक नहीं कहे जाते, राजीव हत्याकांड के अपराधियों
को बचाने के लिए अगर तमिल पार्टियाँ साम्प्रदायिक नहीं कही
जातीं, तो अकेला ओवैसी क्यों साम्प्रदायिक है?
मुसलमानों के मन में जो सवाल घुमड़ रहे हैं, उनका जवाब खोजना
सिर्फ उनका काम नहीं है. भारतीय जनतंत्र और उसकी संस्थाएँ उसे
इंसाफ़ का अहसास दिलाने में नाकाम रही हैं.
सोर्स- BBC