26 जून 1975......आपातकाल की कहानी! ~ Shamsher ALI Siddiquee

Shamsher ALI Siddiquee

मैं इस विश्व के जीवन मंच पर अदना सा किरदार हूँ जो अपनी भूमिका न्यायपूर्वक और मन लगाकर निभाने का प्रयत्न कर रहा है। पढ़ाई लिखाई के हिसाब से विज्ञान के इंफोर्मेशन टेक्नॉलोजी में स्नातक हूँ और पेशे से सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हूँ तथा मेरी कंपनी में मेरा पद मुझे लीड सॉफ़्टवेयर इंजीनियर बताता है।

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26 जून 1975......आपातकाल की कहानी!

    



1971 में रायबरेली के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने जीत हासिल की. उनकी जीत को उनके प्रतिद्वंद्वी राजनरायण ने चुनौती दी.भारतीय राजनीति के इतिहास में इस मुक़दमे को इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण के नाम से जाना जाता है. 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया.
12 जून, 1975 की सुबह दस बजे से पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम नंबर 24 खचाखच भर चुका था.जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा पर पूरे देश की नज़रें थीं, क्योंकि वो राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मामले में फ़ैसला सुनाने जा रहे थे.
मामला 1971 के रायबरेली चुनावों से जुड़ा था. ये वही लोकसभा चुनाव था, जिसमें इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबरदस्त क़ामयाबी दिलाई थी. इंदिरा खुद रायबरेली से चुनाव जीती थीं.
उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण को भारी अंतर से हराया था, लेकिन राजनारायण अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त थे कि नतीजे घोषित होने से पहले ही उनके समर्थकों ने विजय जुलूस निकाल दिया था.
जब परिणाम घोषित हुआ तो राजनारायण के होश उड़ गए.

राजनारायण की अपील

 


नतीजों के बाद राजनारायण शांत नहीं बैठे, उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया.
उन्होंने अपील की कि, इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है, इसलिए उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए.
जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ठीक दस बजे अपने चेंबर से कोर्टरूम में आए. सभी लोग उठकर खड़े हुए.
शुरुआत में ही उन्होंने साफ़ कर दिया कि राजनारायण की याचिका में उठाए गए कुछ मुद्दों को उन्होंने सही पाया है.
राजनारायण की याचिका में जो सात मुद्दे इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ गिनाए गए थे, उनमें से पांच में तो जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को राहत दे दी थी, लेकिन दो मुद्दों पर उन्होंने इंदिरा गांधी को दोषी पाया था.
फ़ैसले के अनुसार, जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले छह सालों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया.

ऐतिहासिक मुकदमा


मार्च 1975 का महीना. जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होने लगीं.
दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का आदेश दिया.
तारीख तय की गई 18 मार्च 1975.
भारत के इतिहास में ये पहला मौका था, जब किसी मुक़दमे में प्रधानमंत्री को पेश होना था. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने भी पेशी की तैयारी की.

जजों को प्रभावित करने की कोशिशें


सवाल ये भी था कि जज के सामने प्रधानमंत्री और बाकी लोगों का शिष्टाचार कैसा हो, क्योंकि अदालत में सिर्फ और सिर्फ़ जज के प्रवेश करने पर ही उपस्थित लोगों के खड़े होने की परंपरा है, पर जब प्रधानमंत्री सामने हो तो...
राजनारायण की ओर से जिरह करने वाले वकील शांति भूषण याद करते हैं, “इंदिरा के कोर्ट में प्रवेश करने से पहले जस्टिस सिन्हा ने कहा, अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं जब जज आते हैं, इसलिए इंदिरा गाँधी के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए. लोगों को प्रवेश के लिए पास बांटे गए थे.”
अदालत में इंदिरा गांधी को करीब पांच घंटे तक सवालों के जवाब देने पड़े. इंदिरा गांधी और उनके समर्थकों को अंदाज़ा लगने लगा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ जा सकता है. तो ऐसे में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिशें भी शुरू हुईं.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस डीएस माथुर, इंदिरा गांधी के निजी डॉक्टर केपी माथुर के क़रीबी रिश्तेदार थे.

और चुनाव रद्द...


शांति भूषण के बताते हैं कि जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के घर पर जस्टिस माथुर, अपनी पत्नी के साथ पहुंचे.
उन्होंने जस्टिस सिन्हा से कह दिया कि अगर वो राजनारायण वाले मामले में सरकार के अनुकूल फ़ैसला सुनाते हैं, तो उन्हें तुरंत सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया जाएगा.
लेकिन इसका जस्टिस सिन्हा पर कोई असर नहीं हुआ.
जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में लिखा कि इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया.
जन प्रतिनिधित्व कानून में इनका इस्तेमाल भी चुनाव कार्यों के लिए करना ग़ैर-क़ानूनी था.
इन्हीं दो मुद्दों को आधार बनाकर जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा के लिए हुआ चुनाव निरस्त कर दिया.
साथ ही जस्टिस सिन्हा ने अपने फ़ैसले पर बीस दिन का स्थगन आदेश दे दिया.

सुप्रीम कोर्ट में


ना सिर्फ ये भारत में, बल्कि दुनिया के इतिहास में भी पहला मौका था, जब किसी हाईकोर्ट के जज ने किसी प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ इस तरह का कोई फैसला सुनाया हो.
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर बताते हैं कि इस फ़ैसले के बाद उनकी मुलाक़ात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जगजीवन राम से हुई.
जगजीवन राम से उन्होंने पूछा कि क्या इंदिरा इस्तीफ़ा देंगी तो उनका कहना था नहीं और अगर ऐसा हुआ तो पार्टी में घमासान मच जाएगा.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद इंदिरा गांधी की तरफ से पैरवी करने के लिए मशहूर वकील एन पालखीवाला को बुलाया गया.

आख़िरकार इंदिरा गांधी की तरफ से अपील सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई 22 जून 1975 को और वैकेशन जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर के सामने ये अपील आई.
इंदिरा गांधी की तरफ़ से पालखीवाला ने बात रखी, राजनारायण की तरफ से शांति भूषण अदालत में आए.
जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा था कि उनपर भी इस केस को लेकर दवाब बनाने की कोशिश हुई.
जस्टिस कृष्ण अय्यर ने स्वीकार किया था कि देश के कानून मंत्री गोखले ने उनसे मिलने के लिए फ़ोन किया था.

झटका और इमरजेंसी की घोषणा


24 जून, 1975 को जस्टिस अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले पर स्थगन आदेश तो दे दिया, लेकिन ये पूर्ण स्थगन आदेश न होकर आंशिक स्थगन आदेश था.
जस्टिस अय्यर ने फ़ैसला दिया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं.
यानी सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के मुताबिक, इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता चालू रह सकती थी.
जस्टिस अय्यर के इस फ़ैसले के बाद विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर अपने हमले तेज़ कर दिए.
और 25 जून को दिल्ली में जयप्रकाश नारायण की रैली रामलीला मैदान में हुई.

और इसी रैली के बाद इंदिरा गांधी ने आधी रात को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी...
25 जून 1975 की सुबह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रॉय के फ़ोन की घंटी बजी. उस समय वह दिल्ली में ही बंग भवन के अपने कमरे में बिस्तर पर लेटे हुए थे.
दूसरे छोर पर इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आरके धवन थे, जो उन्हें प्रधानमंत्री निवास तलब कर रहे थे.
जब रॉय 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तो इंदिरा गांधी अपनी स्टडी में बड़ी मेज़ के सामने बैठी हुई थीं जिस पर ख़ुफ़िया रिपोर्टों का ढेर लगा हुआ था.
अगले दो घंटों तक वो देश की स्थिति पर बात करते रहे. इंदिरा का कहना था कि पूरे देश में अव्यवस्था फैल रही है. गुजरात और बिहार की विधानसभाएं भंग की जा चुकी हैं. इस तरह तो विपक्ष की मांगों का कोई अंत ही नहीं होगा. हमें कड़े फ़ैसले लेने की ज़रूरत है.
इंदिरा ने ये भी कहा कि वो अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 'हेट लिस्ट' में सबसे ऊपर हैं और उन्हें डर है कि कहीं उनकी सरकार का भी सीआईए की मदद से चिली के राष्ट्रपति साल्वाडोर अयेंदे की तरह तख़्ता न पलट दिया जाए.

'शॉक ट्रीटमेंट'



बाद में एक इंटरव्यू में भी इंदिरा ने स्वीकार किया कि भारत को एक ‘शॉक ट्रीटमेंट’ की ज़रूरत थी.
इंदिरा ने सिद्धार्थ शंकर रॉय को इसलिए बुलाया था क्योंकि वह संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ माने जाते थे. मज़े की बात ये थी कि उन्होंने तब तक अपने क़ानून मंत्री एचआर गोखले से इस बारे में कोई सलाह मशविरा नहीं किया था.
रॉय ने कहा, "मुझे वापस जाकर संवैधानिक स्थिति को समझने दीजिए."
इंदिरा राज़ी हो गईं, लेकिन यह भी कहा कि आप ‘जल्द से जल्द’ वापस आइए. रॉय ने वापस आकर न सिर्फ़ भारतीय बल्कि अमरीकी संविधान के संबद्ध हिस्सों पर भी नज़र डाली.
वो दोपहर बाद तीन बजकर तीस मिनट पर दोबारा 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे और इंदिरा को बताया कि वो आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर सकती हैं.

फ़ख़रुद्दीन ने किए दस्तख़त

इंदिरा ने रॉय से कहा कि वो आपातकाल लगाने से पहले मंत्रिमंडल के सामने इस मामले को नहीं लाना चाहतीं. इस पर रॉय ने उन्हें सलाह दी कि वो राष्ट्रपति से कह सकतीं हैं कि मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था.
इंदिरा ने सिद्धार्थ शंकर रॉय से कहा कि वो इस प्रस्ताव के साथ राष्ट्रपति के पास जाएं.


कैथरीन फ़्रैंक अपनी किताब 'इंदिरा' में लिखती हैं कि रॉय ने इसका ये कहकर विरोध किया कि वो पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री हैं, प्रधानमंत्री नहीं.
हाँ उन्होंने ये पेशकश ज़रूर की थी कि वो उनके साथ राष्ट्रपति भवन चल सकते हैं. ये दोनों शाम साढ़े पांच बजे वहाँ पहुंचे. सारी बात राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद को समझाई गई.
उन्होंने इंदिरा से कहा कि आप इमरजेंसी के कागज़ भिजवाइए. जब रॉय और इंदिरा वापस 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तब तक अंधेरा घिर आया था. रॉय ने इंदिरा के सचिव पीएन धर को ब्रीफ़ किया.
धर ने अपने टाइपिस्ट को बुलाकर आपातकाल की घोषणा के प्रस्ताव को डिक्टेट करॉया. सारे कागज़ों के साथ आरके धवन राष्ट्रपति भवन पहुँचे. फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तुरंत आपातकाल की अधिघोषणा पर दस्तख़त कर दिए. उस समय रात के 11 बजकर 45 मिनट हुए थे.

सुबह छह बजे मंत्रिमंडल की बैठक



इंदिरा ने निर्देश दिए कि मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों को अगली सुबह 5 बजे फ़ोन कर बताया जाए कि सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक बुलाई गई है.
तब तक आधी रात होने को आ चुकी थी, लेकिन सिद्धार्थ शंकर रॉय अभी भी 1 सफ़दरजंग रोड पर मौजूद थे.
वो इंदिरा के साथ उस भाषण को अंतिम रूप दे रहे थे जिसे इंदिरा अगले दिन मंत्रिमंडल की बैठक के बाद रेडियो पर देश के लिए देने वाली थीं.


बीच-बीच में संजय उस कमरे में आ-जा रहे थे. एक-दो बार उन्होंने 10-15 मिनटों के लिए इंदिरा गांधी को कमरे से बाहर भी बुलाया.
उधर आरके धवन के कमरे में संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ़्तार किया जाना था.
उस लिस्ट पर अनुमोदन के लिए इंदिरा को बार-बार कमरे से बाहर बुलाया जा रहा था.
ये तीनों लोग इस बात की भी योजना बना रहे थे कि अगले दिन कैसे समाचार-पत्रों की बिजली काटकर सेंसरशिप लागू की जाएगी.
जब तक इंदिरा ने अपने भाषण को अंतिम रूप दिया, सुबह के तीन बज चुके थे.

अख़बारों की बिजली काटने की योजना



रॉय ने इंदिरा से विदा ली, लेकिन गेट तक पहुंचते-पहुंचते वो ओम मेहता से टकरा गए. मेहता ने रॉय को बताया कि अगले दिन अख़बारों की बिजली काटने और अदालतों को बंद रखने की योजना बना ली गई है.
रॉय ने तुरंत इसका विरोध किया और कहा कि ये बेतुका फ़ैसला है. "हमने इसके बारे में तो बात नहीं की थी. आप इसे इस तरह से लागू नहीं कर सकते."
रॉय वापस मुड़े और धवन के पास जाकर बोले कि वो इंदिरा से फिर मिलना चाहते हैं. धवन ने कहा कि वो सोने जा चुकीं हैं.
रॉय ने ज़ोर देकर कहा, "मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है." बहुत झिझकते हुए धवन इंदिरा गांधी के पास गए और उन्हें लेकर बाहर आए.
रॉय ने कैथरीन फ़्रैंक को बताया कि जब उन्होंने इंदिरा को बिजली काटने वाली बात बताई तो उनके होश उड़ गए.
उन्होंने रॉय से इंतज़ार करने के लिए कहा और कमरे से बाहर चली गईं. इस बीच, धवन के दफ़्तर से संजय ने बंसीलाल को फ़ोन किया कि रॉय बिजली काटने की योजना का विरोध कर रहे हैं.


बंसीलाल ने जवाब दिया, "रॉय को निकाल बाहर करिए...वो खेल बिगाड़ रहे हैं. वो अपने आपको बहुत बड़ा वकील समझते हैं, लेकिन उन्हें कुछ आता-जाता नहीं."(जग्गा कपूर, वाट प्राइस पर्जरी: फ़ैक्ट्स ऑफ़ शाह कमीशन)

तीन लोगों की गिरफ़्तारी नहीं

जब रॉय इंदिरा का इंतज़ार कर रहे थे तो ओम मेहता ने उन्हें बताया कि इंदिरा सेंसरशिप तो चाहती हैं, लेकिन अख़बारों की बिजली काटने और अदालतें बंद करने का आइडिया संजय का है.
जब इंदिरा वापस लौटीं तो उनकी आंखें लाल थीं. उन्होंने रॉय से कहा, "सिद्धार्थ बिजली रहेगी और अदालतें भी खुलेंगीं."
रॉय इस ख़ुशफ़हमी में वापस लौटे कि सब कुछ ठीक हो गया है.
जब तक 26 जून को तड़के इंदिरा सोने गईं, गिरफ़्तारियां शुरू हो चुकीं थी. सबसे पहले जयप्रकाश नारॉयण और मोरारजी देसाई को हिरासत में लिया गया.
इंदिरा गांधी ने सिर्फ़ तीन लोगों की गिरफ़्तारी की अनुमति नहीं दी थी. वो थे तमिलनाडु के नेता कामराज, बिहार के समाजवादी नेता और जयप्रकाश नारायण के साथी गंगासरन सिन्हा और पुणे के एक और समाजवादी नेता एसएम जोशी.

जेपी को जगाकर गिरफ़्तार किया




रात डेढ़ बजे गांधी पीस फ़ाउंडेशन के अहाते में सो रहे चंद्रहर ने फ़ाउंडेशन के सचिव अपने पिता केएस राधाकृष्ण को जगाकर बताया कि पुलिस जयप्रकाश नारायण को गिरफ़्तार करने आई है.
राधाकृष्ण ने पुलिस ऑफ़िसर से कहा कि क्या आप चार बजे तक इंतज़ार कर सकते हैं. जेपी तब तक उठ जाएंगे क्योंकि उन्हें पटना जाने के लिए सुबह की फ़्लाइट पकड़नी है.
वो बहुत देर से सोए हैं और उन्हें थोड़े आराम की ज़रूरत है.
चार बजे राधाकृष्ण ने जेपी को धीरे से जगाया और ज़िला मजिस्ट्रेट सुशील कुमार का दस्तख़त किया हुआ वॉरंट पढ़कर सुनाया.
जेपी तैयार होकर पुलिस की गाड़ी में बैठ ही रहे थे कि एक तेज़ रफ़्तार से चलती हुई टैक्सी वहाँ आकर रुकी. उसमें से चंद्रशेखर कूदकर निकले.
वो अपनी टैक्सी से जेपी के पीछे-पीछे संसद मार्ग पुलिस स्टेशन गए. राधाकृष्ण ने चलते-चलते जेपी से पूछा, क्या आप लोगों को कोई संदेश देना चाहेंगे?
जेपी ने पलभर सोचकर राधाकृष्ण की आँख में देखकर कहा, "विनाश काले विपरीत बुद्धि."

स्वर्ण सिंह ने दिखाई हिम्मत



उसी समय दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर जब अख़बार प्रिंट के लिए जा रहे थे, तभी उनकी बिजली काट दी गई.
अगले दिन सिर्फ हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेट्समैन ही छप पाए, क्योंकि उनकी प्रिंटिंग प्रेस बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर नहीं थी.
इंदिरा उस रात बहुत कम सो पाईं, लेकिन जब वो तड़के सुबह कैबिनेट की बैठक में आईं तो बिल्कुल भी थकी-हारी नहीं लग रहीं थीं.
आठ कैबिनेट मंत्रियों और पांच राज्य मंत्रियों ने बैठक में हिस्सा लिया. (नौ मंत्री दिल्ली से बाहर थे.) जैसे ही ये लोग बैठक में आए, उन्हें आपातकाल उद्घोषणा और गिरफ़्तार किए गए नेताओं की लिस्ट दी गई.


इंदिरा ने बताया कि आपात काल लगाने की ज़रूरत क्यों हुई. सिर्फ़ एक मंत्री ने सवाल पूछा. वो थे रक्षा मंत्री स्वर्ण सिंह. उनका सवाल था, "किस क़ानून के तहत गिरफ़्तारियां हुई हैं?"
इंदिरा ने उनको संक्षिप्त जवाब दिया, जिसे वहाँ मौजूद बाकी लोग नहीं सुन पाए. कोई मतदान नहीं हुआ, कोई मंत्रणा नहीं हुई.
पीएन धर ने अपनी किताब 'इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी' में लिखा कि इमरजेंसी पर मोहर लगाने वाली ये महत्वपूर्ण बैठक मात्र आधे घंटे में ख़त्म हो गई.

संजय गाँधी और गुजराल में झड़प



जैसे ही सूचना और प्रसारण मंत्री इंदर कुमार गुजराल कैबिनेट रूम से बाहर आए, उन्होंने देखा कि संजय गाँधी बाहर खड़े हुए थे.
उनकी पूरी भाव-भंगिमा ऐसी थी मानो कि अब वही सर्वेसर्वा हों.
उन्होंने गुजराल के साथ बाहर आ रहे शिक्षा मंत्री नूरुल हसन से कहा कि विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे आरएसएस से सहानुभूति रखने वाले शिक्षकों की सूची उन्हें तुरंत उपलब्ध कराएं.
फिर गुजराल से उन्होंने कहा, "मैं प्रसारण से पहले सभी समाचार बुलेटिनों को देखना चाहूंगा."
गुजराल ने हिम्मत कर जवाब दिया कि ये संभव नहीं है. पास खड़ी इंदिरा गाँधी के कानों में ये आवाज पड़ी, तो उन्होंने पूछा, "मामला क्या है?"
गुजराल ने जवाब दिया, "जब तक बुलेटिनों को प्रसारित नहीं कर दिया जाता, वो गुप्त दस्तावेज़ होते हैं."
इंदिरा गाँधी ने रास्ता सुझाया कि एक आदमी को लगा दिया जाए जो प्रसारण से पहले समाचार बुलेटिनों को प्रधानमंत्री निवास ले आए.
गुजराल ये तय कर घर लौटे कि अब वो इस्तीफ़ा दे देंगे. लेकिन उन्हें थोड़ी देर बार दोबारा प्रधानमंत्री निवास बुला लिया गया. वहाँ संजय मौजूद थे.
इंदिरा गाँधी दफ़्तर जा चुकी थीं. संजय ने बदतमीज़ी से कहा कि प्रधानमंत्री का आपातकाल की घोषणा वाला प्रसारण सभी फ़्रिक्वेंसियों पर नहीं प्रसारित किया गया.
गुजराल नियंत्रण खो बैठे. उन्होंने संजय से कहा, "अगर तुम्हें मुझसे बात करनी है, तो तुम्हें सभ्य होना पड़ेगा. तुम मेरे बेटे से कम उम्र के हो. मैं तुम्हें कोई सफ़ाई देने के लिए बाध्य नहीं हूँ."

विद्याचरण शुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्रालय



अगले दिन मोहम्मद यूनुस ने गुजराल को फ़ोन कर कहा कि दिल्ली में बीबीसी के दफ़्तर को बंद कराएं और उसके संवाददाता मार्क टली को गिरफ़्तार करें क्योंकि बीबीसी ने ये ख़बर प्रसारित की है कि जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह को उनके घर पर नज़रबंद कर दिया गया है.
गुजराल ने जब इसकी जाँच कराई तो पता चला कि बीबीसी ने ऐसा कुछ भी प्रसारित नहीं किया था.
जब उन्होंने इंदिरा को ये बात बताई तो उन्होंने गुजराल को बुलवा कर कहा कि वो उनसे सूचना और प्रसारण मंत्रालय ले रही हैं, क्योंकि "मंत्रालय को उन हालात में एक सख़्त हाथ की ज़रूरत है."
तीन दिन बाद गुजराल का तबादला योजना मंत्रालय कर दिया गया और विद्याचरण शुक्ल भारत के नए सूचना और प्रसारण मंत्री बना दिए गए.